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ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन
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चतुर्थ अध्याय
ऋषिभाषित में वर्णित कर्म सिद्धांत
कर्म सिद्धान्तः नैतिकता की पूर्वमान्यता
कर्म सिद्धांत नैतिकता की एक पूर्वमान्यता है। अतः नैतिता के प्रति आस्था के बनायें रखने के लिए सभी भारतीय चिन्तकों ने प्रकारान्तर से कर्म सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है। भारत के श्रमण और वैदिक सभी दर्शन कर्म सिद्धांत को स्वीकार करके चलते हैं। यद्यपि यह एक अलग प्रश्न है कि वे कर्म के स्वरूप को चैतसिक मानते हैं या उसे जड़-पुद्गल के रूप में स्वीकार करते हैं अथवा वे कर्म में स्वयं फल प्रदान करने की शक्ति को स्वीकार करते हैं अथवा यह मानते हैं कि कर्म के अनुसार फल प्रदान करने का कार्य ईश्वर का है। कर्म स्वतः फलप्रदाता
जहाँ तक भारतीय श्रमण परंपराओं का प्रश्न है वे सभी कर्म में स्वयं फल देने की सामर्थ्य को स्वीकार करती हैं और कर्म ने फल प्रदान का दायित्व ईश्वर पर नहीं डालती है। जिन श्रमण परंपराओं ने साधना के आदर्श के रूप में ईश्वर को स्वीकार भी किया उन्होंने भी कर्म फल प्रदान करने का दायित्व ईश्वर पर नहीं डाला।
इस संदर्भ में यह भी एक महत्त्वपूर्ण तथ्य है कि वैदिक दर्शनों में मीमांसा दर्शन भी कर्म में स्वतः फल प्रदान करने की शक्ति को स्वीकार करता है। जहाँ तक ऋषिभाषित का प्रश्न है वह मुख्यतया श्रमण परंपरा के इसी दृष्टिकोण का अनुगमन करता है कि कर्म अपनी शुभाशुभ प्रकृति के अनुसार स्वतः ही शुभाशुभ फल प्रदान करते हैं। ऋषिभाषित के दूसरे वज्जियपुत्त नामक अध्याय में कहा गया है कि जिस प्रकार भयभीत व्यक्ति स्वभावतः भागता है उसी प्रकार जीव कर्म का अनुगमन करता है। दूसरे शब्दों में जिस प्रकार भय के साथ पलायन की प्रवृत्ति जुड़ी हुई है उसी प्रकार जीवों की शुभाशुभा प्रवृत्ति उनके पूर्व कर्मों का अनुगमन करती है। इसी
1. जम्मं जरा य मच्चू य, सोको माणोऽवमाणणा।
अण्णाणमूलं जीवाणं, संसारस्स य संतती।।
-'इसिभासियाई' 21/5
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