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डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी जहाँ तक भाव गति का प्रश्न है, वस्तु का स्वतः होने वाला पर्याय परिवर्तन भाव गति है। जीव के संदर्भ में हम यह कह सकते हैं कि हमारे मनोभावों और वृत्तियों में जो परिवर्तन होता है, वह भाव गति कहलाती है।
पुनः इसी अध्याय में औदयिक और पारिणामिक गति की चर्चा हुई है । ७° और उसे गति भाव कहा गया है। पूर्व संस्कारों के कारण जो विभिन्न अवस्थाएँ होती है, वै औदयिक गति कही जाती है, जबकि वस्तु के स्वाभाविक परिवर्तनशीलता नामक गुण के द्वारा जो परिवर्तन घटित होते हैं, वे परिणामिक गति भाव कहलाते हैं । ७१ इससे यह स्पष्ट है कि ऋषिभाषित के अनुसार गतिशीलता स्वाभाविक भी होती है और अन्य निमित्तों से भी होती है। पंचास्तिकायों में जीव और पुद्गल दोनों में स्वाभाविक और नैमित्तिक दोनों प्रकार की गतिशीलता पायी जाती है। जबकि धर्म, अधर्म और आकाश में नैमित्तिक गति पायी जाती है। नैमित्तिक गति की उनमें संभावना होने के कारण ही धर्म, अधर्म और आकाश को परिणामी कहा गया है; क्योंकि चाहे वस्तुतत्त्व में परिवर्तन स्वतः हो या परतः, जहाँ भी परिवर्तन घटित होता है उसे परिवर्तनशील मानना ही होगा।
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70. उदइय परिणामिए गतिभावे ।
71. कम्मं पप्प फल विवाको जीवाणं परिणामं पप्प फलविवाको पोग्गलाण ।
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- इसि भासियाई, 31/8
-वही, 31/9 गद्यभाग (स)
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