SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 95
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन यह माना है कि जीव और पुद्गल दोनों ही न केवल गति युक्त है, अपितु उनसे दोनों ही प्रकार की अर्थात् प्रयोगगति और विनसा गति पाई जाती है। पुद्गल जीव की प्रयोग गति का कारण होता है और जीव पुद्गल की प्रयोग गति का कारण होता है। प्रयोग गति का तात्पर्य किसी अन्य से प्रेरित होकर गति करना है, न कि स्वभाविक रूप से। जो स्वाभाविक गति होती है, वह विनसा गति कहलाती हैं। जबकि अन्य के निमित्त से जो गति होती है वह प्रयोग गति कहलाती है। ऋषिभाषित में पार्श्व ने यह माना है कि जीव और पुद्गल दोनों ही न केवल गति युक्त है, अपितु उनसे दोनों ही प्रकार की अर्थात् प्रयोग गति और विनसा गति पाई जाती है। पुद्गल जीव की प्रयोग गति का कारण होता है और जीव पुद्गल की प्रयोग गति का कारण होता है। प्रयोग गति का तात्पर्य किसी अन्य से प्रेरित होकर गति करना है न कि स्वभाविक रूप से। यदि हम गहराई से विचार करें तो यह पाते हैं कि इस व्याख्या के माध्यम से पार्श्व ने सृष्टि की गतिशीलता के निमित्त कारण और उपादान कारण की चर्चा भी कर दी है। पुनः गति या परिवर्तनशीलता के इस प्रसंग में यह भी बताया गया है कि जीवों की गति कर्मप्रसूत होती है और पुद्गलों की गति परिणाम प्रसूत होती है। इस गति की प्रक्रिया को पार्श्व ने अनादि और अनंत कहा है।६८ पुनः गति के प्रकारों की चर्चा करते हुए ऋषिभाषित में चार प्रकार की गतियों की चर्चा की गई है९ - 1. द्रव्य गति 2. क्षेत्र गति 3. काल गति और 4. भाव गति वस्तु तत्त्व में जो भी परिवर्तन घटित होता है उसे द्रव्य गति कहते हैं। वस्तु तत्त्व जब कोई स्थान परिवर्तन करता है, तब वह गति क्षेत्रगति कही जाती है। क्षेत्रगति द्रव्य का एक स्थान से दूसरे स्थान पर स्थानांतरित होने का नाम है। कालगति का तात्पर्य समय संबंधी परिवर्तन है। भूत, भविष्य और वर्तमान संबंधी जो कालिक परिवर्तन है, वे कालगति कहे जाते हैं। 67. कम्मप्पभवा जीवा, परिणामप्पभवा पोग्गला। ___-'इसिभासियाई' 31/9 गद्यभाग 68. अणादीए अणिधणे गतिभावे। -'इसिभासियाई'31/8 69. जीवाणं पुग्गलाणं चेव गति दव्वतोगति, खेतओगति, कालओ गती, भावओ गती -वही,31/7 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002508
Book TitleRishibhashit ka Darshanik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramodkumari Sadhvi
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2009
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy