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डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी पर उन्हें सष्टि प्रक्रिया से नहीं जोड़ा जा सकेगा। जैनों ने इसीलिए इन्हें परिणामी नित्य माना था। यद्यपि इन पांच अस्तिकायों में से जीव और पुद्गल दोनों के गतिशील होने की चर्चा ऋषिभाषित में की गई है।६३ धर्म, अधर्म और आकाश की गतिशीलता की कोई चर्चा ऋषिभाषित में नहीं है। वस्तुतः धर्म, अधर्म और आकाश से सृष्टि प्रक्रिया के निष्क्रिय तत्त्व ही हैं। ये मात्र सृष्टि में निष्क्रिय रूप से ही सहायक होते हैं, जबकि पुद्गल और जीव सक्रिय रूप से सृष्टि प्रक्रिया के भागीदार होते हैं। धर्म, अधर्म और आकाश में जैनों ने जो परिणमन माना है वह जीव और पुद्गल की गतिशीलता के कारण ही माना है। _ यहाँ यह भी स्मरण रखना चाहिये कि ऋषिभाषित में जीव को ऊर्ध्वगतिवाला और पुद्गल को अधोगतिवाला बताया हैं।६४ जीव जिस सीमा तक पुदगल से आबद्ध होता है उस सीमा तक वह अधोगामी बनता है, और जिस सीमा तक वह पुद्गल की गति का प्रेरक होता है, उसे ऊर्ध्वगामी बनाता है। अतः जीव में जो अधोगामी गति है वह पुद्गल के कारण है और पुद्गल में जो ऊर्ध्वगामी गति है, वह जीव के कारण है। धर्म, अधर्म और आकाश जो परिवर्तनशीलता देखी जाती है वह पुद्गल और जीव की गति और स्थिति के कारण होती है। जीव और पुद्गल की इस गति और स्थिति के कारण क्रमशः धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय है। डॉ. सागरमल जैन ने इन पंचास्तिकायों पर अपने स्वतंत्र लेख में विस्तार से प्रकाश डाला है।५ किन्तु वह समस्त चर्चा यहाँ अपेक्षित नहीं है। प्रस्तुत विवेचना में इतना बताना ही अपेक्षित है कि ऋषिभाषित के पार्श्व नाम अध्ययन में पंचास्तिकाय की अवधारणा प्रस्तुत है। ऋषिभाषित में वर्णित गति का सिद्धान्त
ऋषिभाषित के इकतीसवें पार्श्व नामक अध्याय में गति के सिद्धान्त की चर्चा करते हुए सर्वप्रथम यह बताया गया है कि जीव और पुद्गल ये दो तत्त्व गतिशील है। पुनः गति के प्रकारों को स्पष्ट करते हुए पुनः यह कहा गया है कि यह गति दो प्रकार की होती है--
1. प्रयोग गति और 2. विनसा गति।६
यहाँ हमें प्रयोग गति और विनसा गति का अर्थ समझ लेना चाहिये-वस्तु में जो स्वाभाविक रूप से गति होती है, वह विनसा गति कहलाती है। जबकि अन्य के निमित्त से जो गति होती है वह प्रयोग गति कहलाती है। ऋषिभाषित में पार्श्व ने 63.. जीवा चेव गमण परिणता पोग्गला चेव गमणपरिणता।
-वही, 31/6 गद्यभाग 64. उड्ढंगामी जीवा, अधोगामी पोग्गला।
-'इसिभासियाई' 31/9 गद्यभाग 65. अस्तिकाय की अवधारणा, दार्शनिक त्रैमासिक, वर्ष अंक 66. दुविधा गती- पयोगगती य विससा गती या
-'इसिभासियाई 31/6
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