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ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन
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3. आकाशास्तिकाय 4. जीवास्तिकाय 5. पुद्गलस्तिकाय
इन्हें अस्तिकाय इसलिए कहा जाता है कि ये प्रसार गुण से युक्त है। जिसे पारम्परिक शब्दावली में बहुप्रदेशत्व होना कहा गया है। यद्यपि पंचास्तिकायों में केवल पुद्गल को मूर्त माना गया है, शेष चारों अमूर्त है। फिर भी यह माना जाता है कि वे प्रसार गुण युक्त हैं क्योंकि यदि जीव को विस्तारवान नहीं माना जायेगा तो वह शरीर को व्याप्त करके नहीं रह सकेगा। जहाँ तक धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय का प्रश्न है इन्हें क्रमशः गति और स्थिति के सहायक द्रव्य के रूप में स्वीकार किया गया है। यदि धर्मस्तिकाय और अधर्मस्तिकाय को लोक में विस्तार युक्त नहीं माना जायेगा, तो जीव और पुद्गल की गति और स्थिति संभव नहीं होगी। ये दोनों द्रव्य लोकव्यापी माने गए हैं। क्योंकि जीव और पुद्गल भी लोकव्यापी ही है। यदि ये धर्म
और अधर्म लोक का अतिक्रमण करके अलोक में व्याप्त होते तो लोक की व्यवस्था ही छिन्न-भिन्न हो जाती। आकाश सभी द्रव्यों को स्थान देने वाला माना गया है, इसलिए उसका विस्तार भी आवश्यक है। यदि आकाश विस्तार गुण युक्त नहीं होगा तो वह जीव पुद्गल आदि को कोई स्थान नहीं दे सकेगा। आकाशास्तिकाय का विस्तार क्षेत्र लोक और अलोक दोनों माना गया है। क्योंकि लोक भी आकाश में रहा हुआ है इसलिए आकाश लोक के अंदर और लोक के बाहर भी प्रसार युक्त है।.
इस प्रकार से ये पाँचों तत्त्व प्रसार गुण युक्त माने गए हैं और ये प्रसार गुण से युक्त होने के कारण ही इन्हें अस्तिकाय कहा जाता है। ऋषिभाषित मात्र पंचास्तिकाय का निर्देश करता है और यह बताता है कि वे नित्य हैं और उनकी नित्यता ही लोक की नित्यता का आधार है। इससे अधिक वह इनके संबंध में कोई विस्तृत चर्चा नहीं करता। किन्तु परवर्ती जैन साहित्य में हमें इनके संबंध में विस्तृत विवेचन उपलब्ध होता है। फिर भी हमारे अध्ययन का विषय ऋषिभाषित तक सीमित होने के कारण हम इनके संबंध में अधिक विस्तार में जाना आवश्यक नहीं समझते हैं। फिर भी इतना सत्य है कि जैन दर्शन में यह सिद्धांत स्पष्टतया उपस्थित है। ग्रंथकार ने पंचास्तिकायों को अविनाशी और नित्य कहा है और यह माना है कि इनके अविनाशी और नित्य होने के कारण यह लोक भी अविनाशी और नित्य है।६२ यदि लोक के घटक अर्थात् पंचास्तिकाय नित्य है तो स्वाभाविक रूप से उनसे निर्मित यह विश्व भी नित्य होगा। फिर भी हमें यह ध्यान रखना चाहिये कि इनकी नित्यता का तात्पर्य कूटस्थ नित्यता नहीं है-परिणामी नित्यता है क्योंकि कूटस्थ नित्यता में मानने 62. लोएणकतई णासी कताइण भवति ण कताइ ण भविस्सति।
-'इसिभासियाई' 31/गद्यभाग पृ. 138
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