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________________ 90 डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी भी विनाश हो जाता है। इस प्रकार ऋषिभाषित में प्रतिपादित स्कन्धवाद बौद्धों के विकसित स्कन्धवाद की अपेक्षा चार्वाकों के पंचमहाभूत रूप शरीर से जीव की उत्पत्ति के सिद्धांत के निकट है, फिर भी इसे बौद्ध परंपरा के स्कन्धवाद का एक पूर्व रूप तो कहा ही जा सकता है। आत्म-अकर्तावाद __ ऋषिभाषित में अन्य जिस दार्शनिक सिद्धान्त का उल्लेख हमें मिलता है वह आत्म अकर्तावाद का सिद्धान्त है। ऋषिभाषित में इसे देशोत्कलवाद के रूप में प्रतिपादित किया गया है। उसमें कहा गया है कि "जो आत्मा के अस्तित्व को मानकर भी उसे अकर्ता कहते हैं वे आत्मा के एकदेश अर्थात् उसके कर्तृत्त्व गुण का उच्छेद मानते हैं।६० वस्तुतः यह सिद्धान्त सांख्यों और वैदान्तियों का ही पूर्वरूप प्रतीत होता है। ऋषिभाषितकार इसे देशोच्छेदवाद (आंशिक उच्छेदवाद) इसलिए कहता है कि इस मान्यता को ग्रहण करने पर बंधन और मुक्ति को स्वीकार करना संभव नहीं होता है। यदि आत्मा अकर्ता है तो फिर बंधन, मोक्ष, पुण्य-पाप आदि नैतिक अवधारणाएँ अर्थ रहित हो जाती है। धर्म और भक्ति का उपदेश भी कोई अर्थ नहीं रखता, संभवतः इसी कारण ऋषिभाषितकार ने उन्हें देशोच्छेदवादी कहा है। पंचास्तिकायवाद ऋषिभाषित में जैन परंपरा का यदि कोई दार्शनिक सिद्धांत हमें उपलब्ध होता है तो वह पंचास्तिकायवाद का सिद्धान्त है। ऋषिभाषित में पंचास्तिकायवाद का सिद्धांत पार्श्व नामक अध्ययन में प्रस्तुत किया गया है। यह स्पष्ट है कि पार्श्व जैन परंपरा में महावीर के पूर्ववर्ती तीर्थंकर माने गए हैं। पंचास्तिकायवाद जैन तत्त्वमीमासा का प्रमुख सिद्धांत है। ऋषिभाषित के पार्श्व नामक अध्याय मे इस सिद्धांत का प्रतिपादन है। कहा गया है कि "यह लोक पंचास्तिकायों से बना हुआ है और ये पंचास्तिकाय कभी भी नाश को प्राप्त नहीं होते, इसलिए यह लोक भी नाश को प्राप्त नहीं होता है।"६१ यहाँ यह स्मरण रखना चाहिये कि पंचास्तिकाय का सिद्धांत पंच महाभूतों के सिद्धांत से पृथक् है। ये पंचास्तिकाय निम्न माने गए हैं 1. धर्मास्तिकाय 2. अर्धास्तिकाय 60. से किं तं "देसुक्कले"? देसुक्कले णाम जे णं "अस्थि न्नेसं" इति सिद्धे जीवस्स अकत्तादिएहिं गाहेहिं देसुच्छेदं वदति। से तं देसुक्कले। -'इसिभासियाई 20/4 गद्यभाग 61. से जहाणामते पंच अस्थि काया ण कयाति णासी जाव णिच्चा एवामेव लोके विण कयाति णासी जाव णिच्चे। -वही, 31/गद्यभाग पृ. 138 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002508
Book TitleRishibhashit ka Darshanik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramodkumari Sadhvi
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2009
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
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