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________________ 96 डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी अध्याय में आगे यह भी स्पष्ट रूप से कहा गया है कि कर्म से युक्त व्यक्ति ही अपने स्वकृत कर्मों के आधार पर जन्म मरण करता रहता है। कर्म परंपरा की अनादिता पुनः कर्म की यह शृंखला किस प्रकार चलती रहती है इस प्रश्न को लेकर ऋषिभाषित में पर्याप्त गहराई से चिंतन किया गया है। उसमें कहा गया है कि जिस प्रकार बीज से अंकुर उत्पन्न होता है और अंकुर से पुनः बीज बनता है उसी प्रकार बीज भूतपूर्व कर्म संस्कार नवीन कर्मों को जन्म देते है और वे नवीन कर्म पुनः कर्म संस्कार के रूप में परिणित होकर भविष्य में कर्म प्रवृत्तियों का कारण बनते हैं। जिस प्रकार बीज और अंकुर की यह प्रक्रिया सतत रूप से चलती रहती है उसी प्रकार कर्म की यह प्रक्रिया भी सतत रूप से चलती रहती है। पुराने कर्म संस्कार अपने फल विपाक के रूप में नवीन-नवीन शुभाशुभ कर्म प्रवृत्तियों को जन्म देते हैं और वे शुभाशुभ कर्म प्रवृत्तियाँ कर्म संस्कार का रूप लेकर पुनः भावी कर्म प्रवृत्तियों की कारण बनती है। वस्तुत: कर्म और उनके फल विपाक की यह सतत प्रक्रिया ही संसार का कारण होती है। ऋषिभाषित में कहा गया है कि अनादि संसार में कर्म ही बीज के समान है और उन कर्म बीजों से मोहग्रस्त चित्त वाले प्राणियों की कर्म संतति अर्थात् कर्म परंपरा सतत रूप से चलती रहती है। यहाँ स्वाभाविक रूप से यह प्रश्न उपस्थित होता है कि यह कर्म परंपरा यदि सतत रूप से चलती ही रहती है तो फिर व्यक्ति संसार से परिनिर्वाण को कैसे प्राप्त हो सकता है? यदि पूर्व काल के कर्म संस्कार अपरिहार्य रूप से नवीन कर्मों को जन्म देते हैं और वे नवीन कर्म पुनः कर्म संस्कार के रूप में परिणत होकर भावी शुभाशुभ कर्मों का कारण बनते रहते है, तो ऐसी स्थिति में यह कर्म प्रक्रिया या कर्म संतति समाप्त नहीं हो सकती। ऋषिभाषित के अनेक अध्यायों में इस प्रश्न को उठाया गया है। विशेष रूप से दूसरे अध्याय की छठी गाथा में, तेरहवें अध्याय की चौथी गाथा में, पंद्रहवें अध्याय की सातवीं गाथा में और पच्चीसवें अध्याय की पहली गाथा में इस समस्या का समाधान प्रस्तुत किया गया है। उसमें कहा गया है कि जिस प्रकार मूल (जड़) का सिंचन करने से फल उत्पन्न होता है किन्तु मूल को नष्ट कर देने -'इसिभासियाई' 2/1 1. जस्स भीता पलायन्ति, जीवाकम्माणुगामिणो। तमेवाऽऽदाय गच्छन्ति, किच्चा दिन्नं व वाहिणी।। 2 गच्छति कम्मेहि सेऽणबढे पणरवि आयाति से सयंकडेण। जम्मण-मरणाई अटे, पुणरवि आयाइ से सकम्मसित्ते।। 3. बीया अंकुरणिप्फत्ती, अंकुरातो पुणो बीय। बीए संबुज्झमणम्मि, अंकुरस्सेव संपदा।। 4. बीयभूताणि कम्माणि, संसारम्मि अणादिए। मोहमोहितचित्तस्स, तत्तो कम्पाणं संतति।। -वही, 2/3 -वही, 2/4 -इसिभासियाई 2/5 www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.002508
Book TitleRishibhashit ka Darshanik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramodkumari Sadhvi
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2009
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
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