________________
ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन
75
तृतीय अध्याय ऋषिभाषित में प्रतिपादित तत्त्वमीमांसा
तत्त्वमीमांसा दार्शनिक चिंतन का एक महत्त्वपूर्ण अंग है। तत्त्वमीमांसा में हम मुख्यतया सत्ता के संबंध में विचार करते हैं। यह जो हमारा अनुभूति का जगत है उसका मूलतत्त्व क्या है? वह जड़ है या चेतन, एक है या अनेक? उससे यह जगत किस प्रकार उत्पन्न हुआ, सृष्टि का मूलतत्त्व एवं कारण क्या है? यदि सृष्टि के मूल में एक से अधिक सत्ताएँ (तत्त्व) हैं, तो उनका पारम्परिक संबंध क्या है? ये ऐसे प्रश्न है जो तत्त्वमीमांसा के अंतर्गत आते हैं। ऋषिभाषित में प्रतिपादित सृष्टिमीमांसा
तत्त्वमीमांसा की ही एक शाखा सृष्टि मीमांसा कहलाती है जो सृष्टि के उत्पत्ति के संबंध में विचार करती है। ऋषिभाषित के 37 वें श्री गिरि नामक अध्ययन में तथा 31 वें पार्श्व नामक अध्ययन में जगत और उसकी सृष्टि के स्वरूप के संबंध में कुछ प्रश्न उठायें गये हैं।'
__ ऋषिभाषित के पार्श्व नामक अध्ययन में सृष्टि और गति से संबंधित निम्न 9 प्रश्न उठाये गये हैं, उसमें पांच प्रश्न लोक से संबंधित है और चार प्रश्न गति से संबंधित है। लोक से संबंधित पांच प्रश्न निम्न है--
1- यह लोक क्या है? अर्थात् लोक का स्वरूप क्या है? 2- लोक कितने प्रकार का है? 3- लोक किसका है अर्थात् इसका स्वामी कौन है? 4- लोक भाव क्या है अर्थात् लोक का स्वरूप किस प्रकार का है- वह
सादि है या अनादि, वह सान्त है या अनन्त, वह पारिणामिक है या
अपरिवर्तनशील? 1- (1) केऽयं लोए? (2) कइविधे लोए? (3) कस्स वा लोए? (4) के वा लोयभावे? (5) के वा अढेण लोए पवुच्चइ?
-इसिभासियाई 31/1 गद्यभाग पृ. 132
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org