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ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन
103 और पाप को क्रमशः सोने और लोहे की बेड़ी कहा है।९ पाप लोहे की बेड़ी है, तो पुण्य सोने की बेड़ी। किन्तु बेड़ी चाहे सोने की हो या लोहे की वह बांधने का काम तो करती है। पुण्य और पाप का अतिक्रमण जैन, बौद्ध और औपनिषदिक तीनों ही परंपरा में स्वीकृत रहा है। यह ठीक है कि लोहे की अपेक्षा सोने की बेड़ी को बंधन की वस्तु न मानकर अलंकरण माना जाता है, किन्तु यह केवल व्यावहारिक दृष्टि से
पुण्य (शुभ) की मूल्यवत्ता
व्यावहारिक दृष्टि से तो हमें पाप की अपेक्षा पुण्य की मूल्यवत्ता को भी स्वीकार करना होगा। यह ठीक है कि पुण्य और पाप अथवा शुभ और अशुभ दोनों ही प्रकार के कर्म बंधन के कारण है, किन्तु पाप की अपेक्षा पुण्य की मूल्यवत्ता बहुत अधिक है, इसे हमें नहीं भूलना चाहिये। यदि पुण्य और पाप दोनों का अतिक्रमण भी करना हो तो भी पहले पाप से छुटकारा पाने के लिए पुण्य को अपनाना होगा और अंत में पुण्य का भी अतिक्रमण करके शुद्ध की ओर जाना होगा। शुद्ध की यात्रा के लिए पहले शुभ का सहारा लेकर अशुभ को समाप्त किया जाता है और फिर शुभ का भी परित्याग करके शुद्ध को प्राप्त किया जाता है। जिस प्रकार कपड़े पर लगे हुए मल को दूर करने के लिए साबुन का सहारा लिया जाता है किन्तु साबुन भी कपड़े के लिए जो एक प्रकार का मल ही होता है, अतः कपड़े को उसकी शुद्ध अवस्था में लाने के लिए उससे साबुन को भी अलग करना होता है। इसी प्रकार आत्मा की शुद्ध अवस्था को प्राप्त करने के लिए पहले पुण्य कर्म का शुभ कर्म के माध्यम से अशुभ प्रवृत्तियों से दूर होना होता है, उसके पश्चात् फिर भी शुभ प्रवृत्तियों का परित्याग करके शुभ अवस्था को पाया जाता है। अतः ऋषिभाषित में जो शुभाशुभ के अतिक्रमण की बात कही गई है, वह वस्तुतः समग्र भारतीय आध्यात्मिक दृष्टि की परिचायक है। शुभ और अशुभ का क्षेत्र नैतिकता का क्षेत्र है। नीति से धर्म के क्षेत्र में प्रवेश करने के लिए शुभ और अशुभ का अतिक्रमण आवश्यक माना गया है और ऋषिभाषित उसी तथ्य को सम्पुष्ट करता हैं। ऋषिभाषित के 'सारिपुत्त' नामक 38 वें अध्याय में स्पष्टरूप से यह कहा गया है, कि जिस हेतु को लेकर चिकित्सा की जाती है, वहाँ न दुःख है और न सुख है, किन्तु चिकित्सा में संलग्न रोगी को दुःख और सुख हो सकता है। उसी प्रकार मोह का क्षय करने में प्रवृत्त व्यक्ति को दुःख
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29. सोवण्णियं पिणियलं बंधदि,
कालाय स पि जह पुरिसी बंधदि एवं जीवं, सुहमसुहं वा कदं कम्म।।
-'समयसार' पुण्यपापाधिकार/146 30. देखें-जैन. बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन भाग 1, पृ. 341
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