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डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी और सुख हो सकते हैं। किन्तु जिस हेतु अर्थात् निर्वाण के लिए मोह का क्षय करता है यहाँ न तो सुख है और न दुःख है। वस्तुतः ऋषिभाषित में वर्णित साधना का लक्ष्य उस अवस्था को प्राप्त करता है जो शुभ और अशुभ दोनों का ही अतिक्रमण कर देती
कर्मबंधन के कारण
कर्म का बंधन क्यों होता है इस प्रश्न को लेकर ऋषिभाषित में दो प्रकार के दृष्टिकोण उपलब्ध होते है। सामान्य रूप से चर्चा करते हुए यह माना गया है कि रागात्मकता ही या आसक्ति ही बंधन का कारण है किन्तु विशेष रूप से चर्चा करते हुए ऋषिभाषित में कर्म आदान के निम्न पांच कारण बताये गए हैं
1-मिथ्यात्व, 2-अनिवृत्ति (अवृत्ति), 3-प्रमाद, 4-कषाय और 5-योग। ऋषिभाषित में बंधन के इन पांच कारणों का विवेचन बौद्ध परंपरा के ऋषि महाकाश्यप के उपदेश के रूप में संकलित है। किन्तु हम देखते हैं कि जैन परंपरा में भी सामान्यतया यही बंधन के पांच कारण माने जाते रहे हैं।३३
यद्यपि हम इन पांचों का विस्तृत विवेचन तो नहीं करना चाहेंगे, किन्तु संक्षेप में यहाँ इनकी चर्चा करना अप्रासंगिक नहीं होगा। . १. मिथ्यात्व
ऋषिभाषित में मिथ्यात्व का तात्पर्य सामान्यतया अविद्या या मिथ्या दृष्टिकोण रहा हैं। जीवन और जगत के संदर्भ में यथार्थ दृष्टिकोण का अभाव या गलत दृष्टिकोण ही मिथ्यात्व है। २. अनिवृत्ति
व्यक्ति में जो आत्म नियंत्रण या संयम की सामर्थ्य है, उसका अभाव ही अनिवृत्ति है। अशुभ कार्यों का या अशुभ प्रवृत्तियों से दूर नहीं होना, यही अविरति का लक्षण।
31. ण दुक्खं ण सुहं वा वि, जहा हेतु तिगिच्छति।
तिगिच्छिए सुजुत्तस्स, दुक्खं वा जति वा सुह। मोहक्खए व जुत्तस्स, दुक्खं वा जइ वा सुह। मोहक्खए जहा-हेऊ न दुक्खं न वि वा सुह।।
-इसिभासियाई, 38/89
32. मिच्छत्तं अनियत्ती य, पमाओ यावि णेगहा।
कसाया चेव जोगा य. कम्मादाणस्स कारण।।
-वही, 9/8
33-मिथ्यादर्शना विरतिप्रमादकषाययोगा बन्धहेतवः।
-तत्त्वार्थसूत्र 8/1
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