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________________ 131 ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन छब्बीसवें अध्याय में कहा गया है कि साधक धर्म के विविध अंगों की साधना में नियुक्त होकर ध्यान और अध्ययन परायण बने।६ पुनः सारिपुत्त नामक अड़तीसवें अध्याय में कहा गया है कि जिस प्रकार व्याधि का नाश करने के लिए वैद्य द्वारा निर्देशित सुखद और दुःखद औषधिायों का सेवन किया जाता है, उसी तरह साधक मोह का क्षय करने के लिए सुखद या दु:खद साधना करें।१७ __इस प्रकार हम देखते हैं कि ऋषिभाषित में उपदिष्ट पुरुषार्थ भोगपरक न होकर निवृत्तिपरक है। ऋषिभाषित के प्रत्येक अध्याय के अंत में यही कहा गया है कि "जो साधक इस प्रकार की साधना करता है सिद्ध, बुद्ध, विरत, निष्पाप, जितेन्द्रिय, और अपनी आत्मा का पूर्ण त्राता बनता है और पुनः इस संसार में नहीं आता है ऐसा में कहता हूँ।८ प्रत्येक अध्याय की इस पुष्पिका से यह स्पष्ट है कि ऋषिभाषितकार की जीवनदृष्टि निवृत्तिपरक हैं यहाँ तक कि बीसवें उत्कलवादी नामक अध्ययन जो कि भौतिकवादी जीवनदृष्टि का समर्थक है, में भी यही पुष्पिका दी गई है। इससे स्पष्टरूप से यह फलित होता है कि ऋषिभाषित की जीवनदृष्टि निवृत्तिमार्गी ही है। यद्यपि ऋषिभाषित का जीवन दर्शन निवृत्तिमार्गी है और वह तप त्याग का ही अनुमोदन करता है किन्तु उसके इस निवृत्तिमार्गी जीवन दर्शन का यह अर्थ नहीं है कि वह दैहिक मूल्यों का पूर्णतः निषेधक है। ऋषिभाषित के ही सारिपुत्त नामक अड़तीसवें अध्याय में दैहिक मूल्यों की भी एक सीमा तक उपयोगिता स्वीकार की गई है, वह शरीर के विनाश की नहीं बल्कि उसके संरक्षण की बात कहता है। इसी प्रकार वैश्रमण कहते हैं कि "आँख में अंजन लगाना, घाव पर लेप करना, लाख को तपाना और बाण को झुकाना ये सब कार्य किसी उचित प्रयोजन के लिए ही किये जाते हैं, उसी प्रकार साधक संयम के पालन करने हेतु क्षुधा की तीव्र आग का प्रतिकार करने के लिए आहार आदि ग्रहण करता है क्योंकि ऐसा आहार संयम के संरक्षण के लिए होता है अतः वह उचित है।२० अम्बड नामक पच्चीसवें अध्याय में भी यह कहा गया है कि "जिस प्रकार सारथी रथ का भारवाहन करने के लिए धुरा 16. मेहुणं तु न गच्छेज्जा, णेव गेण्हे परिग्गह। धम्मंगेहिं णिजुत्तेहिं, झाण्ज्झायणपरायणो।। -इसिभासियाई, 26/5 17. वाहिक्खयाय दुक्खं वा, सुहं वा णाणदेसिया मोहक्खयाय एमेव, दुहं वा जइ वा सुह।। -वही, 38/n 18. 'इसिभासियाई' 1-45/अंतिम भाग 19. वही, 38/2 20. अक्खोवंगो, वणे लेवो, तावणं जं जउस्स या णामणं उसुणो जंच, जुत्तितो कज्ज कारण।। आहारादीपडीकारो, सव्वण्णुवयणाहितो। अप्पाहु तिव्ववण्हिस्स, संजमट्ठाए संजमो।। -वही, 45/48, 49 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002508
Book TitleRishibhashit ka Darshanik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramodkumari Sadhvi
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2009
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
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