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डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी पुरुषार्थ से ही सभी कुछ होता है और न मात्र नियति को ही सब कुछ मान लेने पर कार्य सिद्ध किया जा सकता है। जीवन में नियति और पुरुषार्थ का सम्यक् समन्वय ही हमें यथार्थ दृष्टि प्रदान कर सकती है। हमारे जीवन में नियति और पुरुषार्थ का क्या स्थान है इसे डॉ. राधाकृष्णन ने एक सुंदर रूपक के द्वारा स्पष्ट किया है। वे लिखते है कि "जीवन एक ताश के खेल की तरह है, पत्ते हमें बाँट दिये गये हैं, हमको कैसे पत्ते मिले और कैसे नहीं मिले, इस पर हमारा कोई अधिकार नहीं है, यहाँ तक हम पर नियति-वाद का शासन है किन्तु जो भी पत्ते हमें मिले हैं उनसे एक अच्छा खेल भी खेला जा सकता है और एक बुरा खेल भी खेला जा सकता हैं। यह संभव है कि अच्छे पत्ते होने पर भी एक बुरा खिलाड़ी हार सकता है और बुरे पत्ते होने पर भी एक अच्छा खिलाड़ी बाजी जीत सकता है।३ वस्तुतः पत्ते मिलना यहाँ तक नियति का शासन है किन्तु उन पत्तों से कैसा खेल खेलना यह पुरुषार्थ का क्षेत्र है। इसीलिए ऋषिभाषित के आर्द्रक नामक अट्ठावीसवें अध्ययन में कहा गया है कि "आँखों में अंजन का क्षय, वल्मिक का संचय और मधु का संग्रह सब प्रयत्नपूर्वक ही होता है इसलिए संयम के क्षेत्र में पुरुषार्थी होना चाहिये। हे सुविहित पुरुष! जो क्षण, स्तोक और मुहूर्त जैसे अल्पकाल के लिए जीवन भर प्रयास करते हैं, उनकी असीम फल प्राप्ति का तो कहना ही क्या? इससे यह स्पष्ट है कि ऋषिभाषित पुरुषार्थ को भी अपेक्षित महत्त्व प्रदान किया गया है, फिर भी यह हमें स्मरण रखना चाहिये कि ऋषिभाषित जिस पुरुषार्थ का समर्थन करता है वह आध्यात्मिक साधना या आत्मविशुद्धि के लिए होना चाहिये। सांसारिक विषय भोगों अथवा सुख-सुविधाओं के लिए किये गये पुरुषार्थ को महत्त्वपूर्ण नहीं मानता हैं। ऋषिभाषित का निवृत्तिमार्गी जीवन दर्शन
हम पूर्व में यह संकेत कर चुके हैं कि ऋषिभाषित में पुरुषार्थ का समर्थन तो उपलब्ध है, किन्तु वह जिस प्रकार के पुरुषार्थ का निर्देश करता है वह जीवन की भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति के क्षेत्र में किया गया पुरुषार्थ न होकर संयम साधना
और तप साधना के क्षेत्र में किये जाने वाले पुरुषार्थ से संबंधित हैं। ऋषिभाषित के कूर्मापुत्र नामक साँतवें अध्ययन में स्पष्टरूप से यह कहा गया है कि "साधक प्रव्रजित होकर सर्वोत्तम अर्थ अर्थात् मोक्ष के लिए पुरुषार्थ करें।१५ इसी प्रकार मातंग नामक 13. (अ) "जीवन की आध्यात्मिक दृष्टि"-डॉ. राधाकृष्णन पृ. 292
(ब)"भगवतगीता"-डॉ. राधाकृष्णन पृ. 053 14. अंजणस खयं दिस्स, वम्मीयस्स य संचयं।
मधुस्स य समाहार, उज्जमो संजमे वरं।। खणथोवमुत्तमन्तरं, सुविहित, पाऊणमप्पकालियां तस्स वि विपुले फलागमे, किं पुण जे सिद्धि परक्कमे।।
-'इसिभासियाई' 28/22, 24 15. कामं अकामकारी, अत्तताए परिव्वए। सावजं णिरक्जेणं परिणाए परिक्वएज्जासि त्ति नेमि।।
-वही, 7/5
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