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________________ ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन जैन दर्शन में भी कर्मविपाक के संदर्भ में किसी सीमा तक इस नियतिवादी दृष्टिकोण को स्वीकार किया गया है। ऋषिभाषित में पुरुषार्थवाद किन्तु उपरोक्त नियतिवादी अवधारणा पुरुषार्थ की विरोधी नहीं है। नियति और पुरुषार्थ वस्तुतः दो जीवन दृष्टियाँ है । घटित घटनाओं के संदर्भ में नियतिवादी जीवन दृष्टि ही हमें चित्त शांति प्रदान कर सकती है, किन्तु जहाँ तक हमारे वर्तमान का प्रश्न है उस संदर्भ में पुरुषार्थ आवश्यक है। क्योंकि वर्तमान का पुरुषार्थ ही भविष्य का आधार बनता है। ऋषिभाषित में नियतिवादी के साथ-साथ पुरुषार्थवाद का भी . प्रतिपादन उपलब्ध होता है। 129 ऋषिभाषित के अंतिम पैतालीसवें अध्याय की अंतिम गाथा स्पष्टरूप से पुरुषार्थवाद का प्रतिपादन करती है उसमें कहा गया है कि "जिस प्रकार पुष्प का अभिलाषी पुष्प के आदि कारण अर्थात् बीज की रक्षा करता है, उसी प्रकार साधक को स्वयं में प्रकट होने वाली पराक्रम शक्ति का सम्यक् प्रकार से संयम में उपयोग करना चाहिये।११ नियतिवाद और पुरुषार्थवाद का समर्थन ऋषिभाषित नियति और पुरुषार्थ में किस प्रकार समन्वय स्थापित किया जा सकता है इस संबंध में एक सुस्पष्ट दृष्टिकोण उपलब्ध करता है। नवें अध्याय में महाकाश्यप कहते हैं कि "बद्ध स्पृष्ट, निद्धत कर्मों में उपक्रम, उत्कर्ष, संक्षोभ और क्षय हो सकता है किन्तु निकाश्चित् कर्म का तो अनुभव करना ही पड़ता है । देहधारियों की स्थिति अल्प है और उनके दुष्कृत अत्याधिक हैं। अतः पूर्व में बद्ध कर्मों की समाप्ति के लिए दुष्कर तप करना आवश्यक है। इस प्रकार हम देखते हैं कि ऋषिभाषित में एक ओर वह कुछ कर्मों के फलविपाक को अपरिहार्य मानकर नियतिवाद का समर्थन करता है तो दूसरी ओर कुछ कर्मों को फलभोग किये बिना ही समाप्त किया जा सकता है, यह कहकर पुरुषार्थवाद का समर्थन करता है। दूसरे शब्दों में कुछ कर्मों का फल विपाक नियत होता है और कुछ कर्मों का फल - विपाक अनियत । कर्मों के विपाक की इस अनियता में ही पुरुषार्थ का मूल्य एवं महत्व स्पष्ट होता है। यदि आत्मा में इस पुरुषार्थ को संभव नहीं माना जायेगा तो साधना संबंधी समस्त उपदेश निरर्थक हो जायेगा। अतः हमें यह मानना होगा कि धर्म और नैतिकता के क्षेत्र में अथवा कर्म सिद्धान्त के संदर्भ में नियतिवाद और पुरुषार्थवाद दोनों ही आवश्यक है । व्यवहारिक जीवन के क्षेत्र में भी न तो मात्र 11. भगवद्गीता, 45/53 12. वही, 9 / 12, 14 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002508
Book TitleRishibhashit ka Darshanik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramodkumari Sadhvi
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2009
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
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