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________________ 128 डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी गुठली से आम ही उत्पन्न होता है अन्य कोई वृक्ष नहीं।" दूसरे शब्दों में, आम की गुठली में आम के अतिरिक्त अन्य किसी वृक्ष को उत्पन्न करने की क्षमता का अभाव है। उसी प्रकार व्यक्ति के व्यवहार की भी कुछ नियत सीमाएँ हैं, जिनसे अलग हटकर उनका व्यवहार नहीं हो सकता। वस्तुगत नियत सीमाएँ हैं, जिनसे अलग हटकर उनका व्यवहार नहीं हो सकता। वस्तुगत स्वाभाविक नियतता को स्वीकार करना ही मंखलिपुत्त का नियतिवाद है। जैन और बौद्ध परंपराओं में गोशालक को नियतिवादी माना गया हैं यहाँ हम कहना चाहेंगे कि नियतिवादी वह विचारधारा है, जो व्यक्ति के पुरुषार्थ की अपेक्षा विश्व की एक नियत व्यवस्था पर बल देती है और इस नियत व्यवस्था का आधार वस्तु के स्वस्वभाव को मानती है। यह सत्य है कि मंखलिपुत्र एक नियतिवादी विचारक रहे हैं। किन्तु मंखलिपुत्र के इस नियतिवाद का लक्ष्य व्यक्ति के कर्तृत्त्व अहंकार को समाप्त कर उसे एक अनासक्त समभावपूर्ण जीवनदृष्टि प्रदान करना है। वे स्पष्टरूप से कहते हैं कि "जो पदार्थों की परिणति को देखकर कम्पित होता है, प्रभावित होता है, क्षोभित होता है, आहत होता है, वह साधक तदनुरूप मनोभावों से प्रभावित होने के कारण आत्मरक्षक नहीं बन सकता।" मंखलिपुत्र के उपदेश का तात्पर्य मात्र इतना है कि विश्व की घटनाएँ उसकी अपनी व्यवस्था के अनुरूप तथा एक निश्चित क्रम में घटित होती रहती है। व्यक्ति के नहीं चाहने पर भी जीवन में प्रतिकूल परिस्थितियों आती है, जो साधक जीवन की इन अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थितियों को पुद्गल की परिणति समझकर इनसे अप्रभावित, अक्षोभित और अनाहत रहता है वही अपने को दुःखों और तनावों से मुक्त रख सकता है। वस्तुतः नियतिवाद नैतिकता की विरोधी विचारधारा नहीं है, अपितु एक अनासक्त जीवन दृष्टि निर्माण की एक आवश्यक शर्त है। नियतिवाद का मुख्य उद्देश्य नैतिकता का अपलाप करना नहीं, किन्तु अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थितियों में चित्त के समत्व की साधना को सीखाना है। हम देखते हैं कि सम्भावपूर्ण अनासक्त जीवन दृष्टि के निर्माण के लिए गीता में भी श्रीकृष्ण ने अर्जुन को यही उपदेश दिया था। जो विचारक यह मानकर चलते हैं कि नियतिवाद और नैतिक दायित्व में परस्पर विरोध है, वे नियतिवाद के प्रयोजन को ही नहीं समझते है। चाहे नैतिक दायित्व और नियतिवाद में अंतरविरोध हो, किन्तु यदि नैतिक और धार्मिक साधना का उद्देश्य चित्तवृत्ति का समत्व माना जाय तो उसकी उपलब्धि के लिए हमें नियतिवादी जीवन-दृष्टि को स्वीकार करना ही होगा। 8. इसिभासियाई, 11/3 9. वही, 11 का गद्यभाग 10. भगवद्गीता 18/6, 17 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002508
Book TitleRishibhashit ka Darshanik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramodkumari Sadhvi
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2009
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
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