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ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन
जो ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करती हैं उन्होंने उसे पूर्व कर्म संस्कार या स्वभाव के रूप में परिभाषित किया है। ऋषिभाषित में हमें स्वभाववाद और नियतिवाद के कुछ उल्लेख उपलब्ध होते हैं। ऋषिभाषित के छठें वल्कलचीरी नामक अध्ययन में तथा मंखलिपुत्र नामक ग्यारहवें अध्याय में नियतिवादी तत्त्व परिलक्षित होते है। वल्कलचीरी कहते हैं कि जिस प्रकार गमन की इच्छा होने पर भी रस्सी से बंधा हुआ व्यक्ति गमन नहीं कर सकता, उसी प्रकार अज्ञानी पुरुष सम्यक् मार्ग को प्राप्त करके भी कर्मरूपी रस्सी अर्थात् स्वभाव से जकड़ा होने के कारण लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सकता निराधार आकाश में छोड़े गए पुष्प के समान दृढ़ रस्सी से बद्ध मनुष्य के लिए विधि अर्थात् भाग्य ही बलवान है । "
ऐसा मनुष्य जब आकाश में स्वतंत्र पक्षी को उड़ान भरते देखता है तो वह स्वतंत्र होने की आकांक्षा करता है किन्तु स्वयं को दृढ़ रस्सी से निबद्ध देखकर उसे विधि ही बलवान प्रतीत होती है। "
इस प्रकार हम देखते है कि वल्कलचीरी यह प्रतिपादित करते हैं कि यद्यपि मनुष्य में स्वतंत्र होने की आकांक्षा रही हुई है फिर भी वह अपने स्वभाव अर्थात् कर्मों से आबद्ध होने के कारण स्वतंत्र नहीं है। स्वभाव अर्थात् कर्मों से आबद्ध व्यक्ति के लिए विधि को बलवान मानना ही अधिक सार्थक है। क्योंकि ऐसा व्यक्ति वास्तव में स्वतंत्र नहीं कहा जा सकता उसे संसार में नियति के विधान को स्वीकार करके ही आत्मतोष का अनुभव हो सकता है। उनके अनुसार जिस प्रकार रस्सी में जकड़ा हुआ व्यक्ति एक सीमा से आगे स्वतंत्र रूप से विहरण नहीं कर सकता, उसी प्रकार स्वभाव से निबद्ध अथवा पूर्व कर्म संस्कारों से जकड़ा हुआ व्यक्ति एक सीमा से आगे अपना आचरण करने में स्वतंत्र नहीं है। जिस प्रकार आकाश में फैला गया पुष्प एक निश्चित क्रम में पृथ्वी पर गिरता ही है उसी प्रकार प्राणी अपने स्वभाव के कारण एक निश्चित क्रम में ही आचरण करता है।
इसी प्रकार ऋषिभाषित में मंखलिपुत्त नामक ग्यारहवें अध्याय में भी नियतिवाद के तत्त्व परिलक्षित होते हैं। मंखलिपुत्त कहते हैं कि " जो द्रव्यों के गुण लाघव का संयोजक करता है वहीं संयोग - निष्पन्नता समस्त कार्यों को पूर्ण करती है । इसका तात्पर्य यह है कि जिस-जिस वस्तु में जो 2 गुण धर्म रहे हुए हैं उस-उस वस्तु के व्यवहार की अभिव्यक्ति उस उस रूप में ही होती है। " जिस प्रकार आम की
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सुत्तमेत्तगतिं चेव, गंतुकामे वि से जहा । एवं लद्धा वि सम्मग्गं, सभावाओ अकोविते ।।
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मुक्कं पुषं व आगासे, णिराधारे तु से णरे ।
ढ - सुम्बणिबद्धे तु, विहरे बलवं विहिं । ।
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-' इसिभासियाई' 6/6, 5
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