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डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी
है।
। सच्चा ब्राह्मण ऐसी ही दिव्य कृषि खेती करता है। सर्व तत्त्वों के प्रति दयारूप, जो ऐसी कृषि करता है वह चाहे ब्राह्मण हो, क्षत्रिय हो, वैश्य हो या शुद्र विशुद्धि को प्राप्त होता हैं। शब्दान्तर से इसी प्रकार का विवेचन ऋषिभाषित के बत्तीसवें 'पिंग' नामक अध्ययन में भी मिलता है। बौद्ध परंपरा के सुत्तनिपात के 'कसिभारद्वाजसुत्त ' में भी ऐसी आध्यात्मिक कृषि का उल्लेख हुआ हैं।"
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वस्तुतः श्रमण परंपराओं की यह विशेषता रही है कि उन्होंने जीवन की सामान्य घटनाओं और क्रियाओं को आध्यात्मिक रूपक के द्वारा समझाकर व्यक्ति को आध्यात्मिक साधना की दिशा में प्रवृत्त किया हैं । ज्ञातव्य है कि आध्यात्मिक कृषि के संदर्भ में ऋषिभाषित के छब्बीसवें तथा बत्तीसवें अध्याय में तथा 'सुत्तनिपात' के 'कसिभारद्वाज सुत्त' में जो उल्लेख मिलते हैं, वे रूपकों के कुछ अंतर के साथ समान ही है। वस्तुतः श्रमण परंपरा बाह्य कर्मकाण्डों की अपेक्षा आत्मविशुद्धि के प्रयत्नों को ही धर्म साधना का मूल हार्द्र समझती थी । यही कारण है कि उसने यज्ञ-याग संबंधी कर्मकाण्डों का विरोध करके जनसामान्य के समक्ष एक आध्यात्मिक चित्तविशुद्धि की पद्धति को प्रस्तुत किया। ऋषिभाषित श्रमण परंपरा का ग्रंथ है, अतः उसमें हमें इसी आध्यात्मिक जीवनदृष्टि का परिचय स्थल-स्थल पर मिलता है। उसकी यही आध्यात्मिक जीवनदृष्टि उसके नैतिक दर्शन का आधार है।
नियतिवाद और पुरुषार्थवाद का समन्वय
नीतिशास्त्र के विद्वानों ने संकल्प की स्वतंत्रता को नीतिशास्त्र की एक पूर्वमान्यता के रूप में स्वीकार किया है। इसका तात्पर्य यह है कि जिस कर्म का चुनाव व्यक्ति अपने स्वतंत्र संकल्प के द्वारा करता है, उसके लिए ही वह उत्तरदायी होता है। दूसरे शब्दों में नैतिक उत्तरदायित्व के लिए संकल्प की स्वतंत्रता आवश्यक मानी गई हैं । किन्तु प्रश्न यह है कि क्या मनुष्य को संकल्प की स्वतंत्रता उपलब्ध है ? पश्चिम और भारतीय दार्शनिकों में कुछ ऐसे दार्शनिक भी है, जो यह मानते हैं कि मनुष्य के पास संकल्प की स्वतंत्रता जैसी कोई वस्तु ही नहीं है, उसके समग्र संकल्प और उसका व्यवहार किसी अन्यशक्ति से नियंत्रित और शासित है। ईश्वरवादियों ने इस शक्ति को ईश्वरीय इच्छा या दैवी इच्छा कहा है। वे श्रमण परंपराएँ
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'इसिभासियाई' 26/7-15
at, 32/2-4
सदा बीजं तपो वुट्ठि पञ्जा में युगनंगलं। हिरि ईसा मनो योत्तं सति में फालपाचनं ।। कायगुतो वचीगुत्तो आहारे उदरे यतो । सच्चं करोमि निद्दानं सोरच्चं मे पमोचनं । । एवम्सा कसी कट्ठा सा होति अमतप्पला । एतं कसं कसित्वान सव्वदुक्खा पमुच्चतीति।।
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