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ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन
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षष्ठ अध्याय
ऋषिभाषित का नैतिक दर्शन
ऋषिभाषित की अध्यात्मिक जीवन दृष्टि
ऋषिभाषित मुख्यतः आध्यात्मिक साधना परक ग्रंथ है। अतः आध्यात्मिक जीवन दृष्टि ही उसका प्रतिपाद्य विषय है। ऋषिभाषित के अनेक अध्यायों में उसके इस आध्यात्मिक जीवन दृष्टि का परिचय हमें मिल जाता है। अध्यात्मवाद का तात्पर्य आत्मा अथवा चेतना को बाह्य पदार्थों अथवा घटनाओं की अपेक्षा अधिक महत्त्व देना हैं। उसमें आत्मविशुद्धि या चित्त शुद्धि ही चरम लक्ष्य होती है। सांसारिक तथ्यों और कर्मकाण्डों का आध्यात्मिक विकास के संदर्भ में एक नवीन अर्थ प्रदान करना अध्यात्मवाद की एक विशिष्ट शैली रही है। जैसे उत्तराध्ययन सूत्र में तीर्थ स्नान, यज्ञ आदि कर्मकाण्डीय प्रक्रियाओं का अध्यात्मीकरण करते हुए कहा गया है कि तप ही ज्योति है और आत्मा उस ज्योति का स्थान हैं, शरीर अग्निकुण्ड है कर्म इंधन है और संयम साधना ही शांति पाठ है, ऐसा यज्ञ ही ऋषियों के द्वारा प्रशंसित है। इसी प्रकार तीर्थ स्नान का अध्यात्मीकरण करते हुए कहा गया है कि "धर्म ही तालाब है, ब्रह्मचर्य उसका शांति तीर्थ है। आत्मा की अनाकुलता और प्रसन्नता ही जल है, जिसमें स्नान करने से आत्मा विशुद्ध हो जाता है। ऐसा स्नान ही महास्नान है, जिसकी ऋषियों ने प्रशंसा की है।"२
इन तथ्यों से यह स्पष्ट होता है कि अध्यात्मवादी जीवनदृष्टि धार्मिक कहे जाने वाले कर्मकाण्डों को एक नवीन संदर्भ प्रदान करती है। ऋषिभाषित में इस आध्यात्मिक जीवन दृष्टि का परिचय उसके छब्बीसवें एवं बत्तीसवें अध्यायों में मिलता है। जहाँ कृषि संबंधी कार्यों का भी आध्यात्मिक दृष्टि से विवेचन किया गया हैं। उसमें कहा गया है कि "आत्मा ही खेत है, तप बीज है, संयम हल है और ध्यान उस हल की तीक्ष्ण फाल है। सम्यक्त्व ही जुआ (जुडा) है। समिति ही उसकी युगकीलक है। धैर्य ही जोत है। पाँच इन्द्रियों का शमित और दमित होना ही उसके बैल
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उत्तराध्ययन 12/44 वही 12/46
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