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डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी मोह है, शल्य है और पराजय है। अग्नि को बलशाली माना जाता है, किन्तु क्रोधाग्नि अपरिमित होती है। अग्नि को बुझाया जा सकता है किन्तु क्रोधाग्नि को समस्त समुद्रों के जल से भी बुझाना असंभव है। अग्नि केवल इस शरीर को जलाती है और अग्नि से जला हुआ व्यक्ति स्वस्थ भी हो सकता है किन्तु क्रोधाग्नि भव-भवान्तर में जलाती रहती है। अग्नि का जला हुआ व्यक्ति शांति को प्राप्त कर सकता हैं किन्तु क्रोधाग्नि से जलने वाले व्यक्ति को कभी शांति प्राप्त नहीं होती है। क्रोध स्वयं को तो जलाता ही है किन्तु वह दूसरों को भी जलाता है उसके कारण अर्थ, काम, धर्म और मोक्ष सभी पुरुषार्थ जल जाते हैं अर्थात् नष्ट हो जाते हैं। इसलिए प्रज्ञावान क्रोधाग्नि की दुष्टता और भस्मशीलता की समीक्षा करके उसे निरूद्ध कर देता है।५३
___ इस प्रकार हम देखते हैं कि ऋषिभाषित में कषायों के स्व-पर विनाशक स्वरूपों का विस्तृत चित्रण किया गया है और साधक आत्मा को यह निर्देश दिया गया है कि वह कषाय रूपी अग्नि से आत्मा की सुख और शांति को नष्ट न होने दें।५४
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53. कोहेण अप्पं डहती परं च, अत्थं च धम्म च तहेव काम।
तीव्वं च वेरं पि करेन्ति कोधा, अधरं गति वा वि उविन्ति कोहा।। 54. कोवो अग्गितमो मच्चू. . . . . . संसारे सव्व देहिणं। Jain Education International
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-इसिभासियाई, 36/14
-वही, 36/3-8
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