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ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन
123 सूचक है कि प्रत्येक कषाय अपनी अभिव्यक्ति के सम्य कषायों की एक श्रृंखला खड़ी कर लेती है। और यह श्रृंखला ही व्यक्ति की आध्यात्मिक शांति और समाधि को भंग करके उसे जन्म जन्मांतर में पीड़ा देती रहती है।
कषाय विजय कैसे संभव है इस संदर्भ में ऋषिभाषित में कहा गया है कि "मन को विजित कर लेने पर कषाय भी विजित हो जाते हैं क्योंकि कषायों का जन्म स्थान मन ही है। ऋषिभाषित में वर्द्धमान कहते हैं कि जो मन और कषायों पर विजय प्राप्त कर लेता है, वह शुद्ध आत्मा ही आहूत अग्नि के समान दैदीप्यमान होता है।
___उद्दालक कषाय विमुक्ति का उपाय बताते हुए कहते हैं कि "क्रोधादि चारों कषायों का विनाश करने के लिए सन्मतिपूर्वक समभाव का आलम्बन और स्व तथा पर का ज्ञाता होकर विषय वासना से रहित पथ में विचरण करें।५२ वर्द्धमान और उद्दालक के इन कथनों में एक मनोवैज्ञानिक सत्य रहा हुआ है। सर्वप्रथम तो कषायों पर विजय प्राप्त करने के लिए हमें मन पर विजय प्राप्त करना चाहिये क्योंकि कषाय मन के आधार पर ही जीवित रहते हैं किन्तु मन पर कैसे विजय प्राप्त की जाये-यह भी विचारणीय है। मन पर विजय प्राप्त करने के लिए आत्मद्रष्टा भाव और समत्वभाव का आना आवश्यक है। मन में अनुकूल और प्रतिकूल संयोगों के अवसर पर जब तक समभाव नहीं रहता है, तब तक चित्त उद्धेलित रहता है और यह उद्धेलित चित्त ही कषायों को जन्म देता है किन्तु अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थितियों में चित्तवृत्ति का यह समत्व तभी सम्भव है, जब आत्मा ज्ञाता द्रष्टा भाव में रहे। जब आत्मा द्रष्टा या साक्षीभाव में आता है, तब क्रोधादि के प्रति भी साक्षी भाव बनेगा और ऐसी स्थिति में कर्तृत्त्व भाव का निषेध होने पर क्रोधादि कषाय निर्मूल होकर समाप्त हो जायेंगे। इस प्रकार हम देखते हैं कि ऋषिभाषित न केवल कषायों का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण प्रस्तुत करता है अपितु उनके शमन का मनोवैज्ञानिक उपाय भी प्रस्तुत करता है। कषायों की संहारक शक्ति
ऋषिभाषित में इस तथ्य को स्पष्टरूप से विवेचित किया गया है कि कषायों का उपशमन कषायों के माध्यम से संभव नहीं है। ऋषिभाषित के 36वें अध्याय में 'तारायण' नामक ऋषि कहते हैं कि "कोपभाजन के प्रति किया गया क्रोध मेरे लिए
और उसके लिए अर्थात् दोनों के लिए ही दुःखप्रद होता है। क्रोध अग्नि है अंधकार है, मृत्यु है, विष है, व्याधि है, शत्रु है, रज है, जरा है, हानि है, भय है, शोक है,
-'इसिभासियाई' 2917
51. जित्ता मणं कसाए या, जो सम्मं कुरुते तवं।
संदिप्पते स सुद्धप्पा, अग्गी वा हविसाऽऽहुते।। 52. तम्हा तेसिं विणासाय, सम्ममागम्म संमति। ... अप्पं परं च जाणित्ता, चरेऽविसयगोय।।
-वही, 35/10
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