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________________ 122 डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी नामक अध्ययन में स्पष्टरूप से आर्यजनों को व्यपगत चतुकषाय कहा गया हैं। पुनः 35वें उद्दालक नामक अध्ययन में इन चारों कषायों का अलग-अलग विवरण प्रस्तुत किया गया है। अतः कषायों के स्वरूप और संख्या के संदर्भ में ऋषिभाषित तथा जैन परंपरा में एकरूपता है जैन परंपरा में मूलतः तो चार ही कषाय माने गए हैं, किन्तु आगे चलकर जैन कर्मसिद्धानत में उनके प्रकारों और उपप्रकारों की चर्चा करते हुए 16 कषायों और 9 नो कषायों (उपकषायों) का उल्लेख हुआ है।८ यहाँ हम केवल ऋषिभाषित के आधार पर ही इन कषायों की चर्चा करेंगे। ऋषिभाषित के 35वें अध्याय में कषायों से संबंधित विस्तृत विवरण उपलब्ध होता है। इस अध्याय के प्रारंभ में ही कहा गया है कि यह जीव कुपित होकर अहंकारी होकर, मायावी होकर और लोभी होकर हिंसा आदि पाप कर्मों का सम्पादन करता है। क्रोध, मान, माया और लोभ के कारण ही वह आत्मस्वरूप का विध्वंस करता हुआ चतुर्गति रूप संसार में परिभ्रमण करता है।" इस प्रकार हम देखते हैं कि ऋषिभाषित में कषायों को आत्मस्वगुणों का विध्वंस करने वाला। संसार परिभ्रमण अर्थात् बंधन का कारण और हिंसा आदि पाप कर्मों में प्रकृति का आधार माना गया है। परवर्ती जैन साहित्य में भी कषायों के इसी स्वरूप का चित्रण हुआ है। __ जैसा कि हम उल्लेख कर चुके हैं ऋषिभाषित में कषायों के केवल चार ही प्रकारों की चर्चा है उसमें निम्न चार कषायों का विवरण उपलब्ध होता है।-(1) क्रोध, (2) मान, (3) माया और (4) लोभ- ये कषाय आत्मा के स्वगुणों का कैसे विनाश करते हैं। इसका चित्रण करते हुए ऋषिभाषित के उद्दालक नामक अध्ययन में कहा गया है कि "अज्ञान ग्रस्त विमूढ़ आत्मा केवल तात्कालिक हित को देखता है और क्रोध को महाबाण बनाकर अपनी ही आत्मा को बींध डालता है। सामान्य बाण से बींधे जाने पर तो मात्र एक ही भव बिगड़ता है किन्तु क्रोध रूपी बाण से बिद्ध होने पर भव सन्तति ही बिगड़ जाती है। इसी प्रकार का उल्लेख मान माया और लोभ के संदर्भ में भी मिलता है।"५० कषाय के कारण भव परंपरा बिगड़ जाती है यह उल्लेख अपने आप में बहुत ही महत्त्वपूर्ण है, यह मनोवैज्ञानिक दृष्टि से इस तथ्य का 48. त्तवार्थ सूत्र 8/10 49. चउहि ठाणेहिं खलु भो जीवा कुप्पन्ता मज्जन्ता गृहन्ता लुब्मन्ता, वज्जं समादियन्ति, वजं समादिइत्ता चाउरन्तसंसारकन्तारे पुणो पुणो अत्ताणं पडिविद्धसन्ति। -'इसिभासियाई',35/ गद्यभाग 50. अण्णाविष्पमूढप्पा, पच्चुप्पण्णाभिधारए। कोवं किच्चा महाबाणं, अप्पा बिंधइ अप्पक।। मण्णे बाणेण विद्धे तु भवमेक्कं विणिज्जति। लोध बाणेण विद्धे तु, णिज्जती भवसंतति।। अप्पाण.......अप्पा बिंधई अप्पक। -'इसिभासियाइ', 35/2-9 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002508
Book TitleRishibhashit ka Darshanik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramodkumari Sadhvi
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2009
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
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