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ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन
121 को ज्ञात हुई तब उन्होंने उसे प्रतिबोध देने के लिए एक योजना तैयार की उसे कहा गया कि तुम्हें तेल से भरा पात्र हाथ में लेकर अयोध्या नगर में घूमना है। किन्तु ध्यान रहे यदि तैल पात्र से एक भी बूंद नीचे गिरी तो तुम्हारा सर धड़ से अलग कर दिया जायेगा। तलवार लेकर दो सिपाही उसके साथ कर दिये गए। उसने अत्यंत सावधानी पूर्वक सजग रहते हुए भ्रमण किया अयोध्या के बाजारों और चौराहों पर क्या देखा यह पूछने पर उस व्यक्ति ने भरत को कहा कि मुझे तेल का कटोरा और मौत के अलावा कुछ नहीं दिखाई दे रहा था। भरत ने उसे समझाया कि जिस प्रकार बाजार में घूमते हुए भी तुम उसे नहीं देख पाये, उससे विमुक्त रहे, उसी प्रकार जो व्यक्ति अपनी मृत्यु को देखता हुआ सांसारिक उपलब्धियों में अप्रमत्त होता है वह संसार में रहकर भी उससे निर्लिप्त रहता है। इस कथा का तात्पर्य इतना ही है कि जो व्यक्ति अप्रमत्तचेता होता है, वह संसार में रहकर भी बंधन को प्राप्त नहीं होता है। इसी तथ्य को स्पष्ट करते हुए 35वें उद्दालक नामक अध्ययन में कहा गया है कि शल्य, शस्त्र, विष, यंत्र, मदिरा सर्प और कटुवाणी के परिणामों को समझकर जो उनका त्याग कर देता है वह उनके दोषों से लिप्त नहीं होता है। इसका तात्पर्य यही है कि जो साधक अप्रमत्त चेता होता है, वह दोषों से लिप्त नहीं होता है क्योंकि वह प्रत्येक कार्य के संदर्भ में अपनी दीर्घ दृष्टि से उनके परिणामों को जान लेता है और फल स्वरूप उनके परिणामों का ज्ञाता होकर उनमें लिप्त नहीं होता। कषाय और उसका स्वरूप
ऋषिभाषित के 9वें अध्याय में कर्म बंध के कारणों की चर्चा करते हुए कषाय का उल्लेख हुआ है। कषाय शब्द सामान्य रूप से श्रमण परंपरा का और विशेष रूप से जैन परंपरा का एक विशिष्ट शब्द है। यह शब्द सामान्यतया दूषित मनोवृत्तियों के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। यद्यपि इस अर्थ में इसके क्वचित् प्रयोग हिन्दू
और बौद्ध परंपरा में देखे जाते हैं किन्तु इस अर्थ में इसका विशेष प्रयोग तो जैन परंपरा में ही अधिक पाया जाता है। ऋषिभाषित में 9, 25, 26, 29 तथा 35 एवं 36वें अध्याय में कषाय का उल्लेख किया जाता है। जैन परंपरा में कषाय शब्द का अर्थ है, जो आत्मा को कुश करती है अथवा जो आत्मा को कसती है अर्थात् बंधन में डालती है वह कषाय है। कषाय चार माने गए हैं। ऋषिभाषित के 25वें अम्बड
44. देखें-कल्पसूत्र, टीका 45. सत्थं सल्लं विसं जन्तं, मन्जं बालं दुभासणं। वज्जेन्तोतणिमेत्तेणं, दोसेणं ण वि लुप्पति।।
-इसिभासियाई.35/12 46. मिच्छ त्तं अनियत्ती य, पमाओ यावि णेगहा। ___कसाया चेव जोगा य, कम्मादाणस्स कारण।।
-वही 9/8 47. देखें- (अ) जैन, बौद्ध और गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, भाग 1, पृ. 499
(ब) अभिधान राजेंद्र कोश, खण्ड 3, पृ. 395
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