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डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी विपरीत जो विषय-वासनाओं के प्रति जागते रहते हैं वे वस्तुतः सोए हुए ही हैं ऐसे व्यक्ति औषधि के महत्त्व को न समझकर घाव से या व्रण से मुक्त नहीं हो पाते। वस्तुत: जो अप्रमत्तचेता नहीं होते वे परमार्थ को नहीं प्राप्त कर सकते। परमार्थ के प्रति जागृत होने का अर्थ अपने प्रति जागृत होना, अपनी विषय वासनाओं और कषायों को देखना है। उद्दालक स्पष्टरूप से यह कहते हैं कि आत्मार्थ के प्रति सदैव जागृत रहो किन्तु पर के प्रति अर्थात् भौतिक विषयों के प्रति जागृत रहने का प्रयत्न न करो, क्योंकि "जो स्व के प्रति जागृत नहीं रहता है और प्रमत्त होकर पर की प्राप्ति के लिए तत्पर रहता है वह आत्मार्थ को अर्थात् अपनी आध्यात्मिक शांति या समाधि को खो देता है।''४० अरे! जब स्वयं का घर जल रहा हो तो दूसरों के घर की ओर क्यों दौड़ते हो, स्वयं का घर जल रहा हो तो दूसरों के घर की आग बुझाने का प्रयत्न मत करो। यदि कोई दूसरा पाप का आचरण कर रहा है तो तुझे मौन धारण करने से क्या हानि होगी, अर्थात् दूसरों के अशुभ आचरण को देखकर दुःखी या प्रसन्न होने का तुझे तो कोई लाभ नहीं मिलेगा, अपितु व्यर्थ ही अपने को दुःखी (तनावों से ग्रस्त) बनायेगा। समग्र साधना का सार यही है कि आत्मार्थ के प्रति जागृत रहना, यही मुक्ति का हेतु है और पर पदार्थों के प्रति जागृत रहना यह कर्म बंध का हेतु है। आत्मा के प्रति सजगता स्व और पर दोनों के लिए ही कल्याण कारक है। दूसरों के जागृत रहने से तुझे क्या मिलेगा, स्वयं अपने को जागृत रख, क्योंकि यह संसार चोरों से अर्थात् कषायों से भरा हुआ है।४२
अप्रमत्त जीवन शैली के संदर्भ में ऋषिभाषित में एक बहुत ही सुंदर उदाहरण दिया गया है। उसमें कहा गया है कि "मुनि तैलपात्र धारक के समान एकाग्र मन होकर विचरण करे। जैन आगमिक व्याख्या साहित्य में भरत के कथानक में तैलपात्र धारक की कथा उपलब्ध होती है। कथा इस प्रकार है-- जब किसी व्यक्ति ने ऋषभ के मुख से यह सुना कि भरत इसी भव में मुक्त होने वाला है तो उसे बहुत ही आश्चर्य हुआ, उसके मन में विचार आया कि राज्य वैभव में आकण्ठ डूबा हुआ भरत जैसा व्यक्ति कैसे इसी भव से मुक्त हो सकता है। उसकी यह आशंका जब भरत
-इसिभासियाई,35/15
40. आतडे जागरो होहि, मा पराहिधारए।
आतट्ठो हायए तस्स, जो परट्ठाहिधारए।। 41. सए गेहे पलितम्मि, किं धावसि परातको
सयं गेहं णिरित्ताणं, ततो गच्छे परातक।। जइ परो पडिसेवेन्ज, पावियं पडिसेवणं।
तुझ मोणं करेन्तस्स, के अढ़े परिहायति।। 42. अण्णातयम्मि अटालकम्मि किं जग्गिएण वीरस्स।
णियगम्मि जग्गियव्वं, इमो हु बहुचोरतो गामो।। 43. तम्हा पाणदयट्ठाए, तेल्लपत्तधरो जधा।
एग्गयमणीभूतो, दयत्थी विहरे मुणी।।
-वही, 35/14, 16
-वही, 35/18
-वही, 45/22
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