SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 121
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन बने रहने पर फूल पत्ते और फल तो आयेंगे ही। ३४ अतः मुमुक्षु आत्मा को दुःख के मूल को ही समाप्त करने का प्रयत्न करना चाहिये। जैसे सपेरा सांप को समाप्त न करके सांप के विष को ही समाप्त करता है । ३५ अप्रमत्त दशा का स्वरूप ऋषिभाषित मुख्यतया अध्यात्मविद्या का ग्रंथ है। अतः उसमें सदाचरण या दुराचरण के संदर्भ में आत्मचेतनता को सर्वाधिक महत्त्व दिया गया है। जो भी कर्म आत्मविस्मृति या प्रमाद दशा में होता है वह नैतिक नहीं हो सकता । आत्मजागृति या अप्रमत्तचेता होना ही उसमें साधना का मूल लक्ष्य माना गया है। ऋषिभाषित के 35वें उद्दालक नामक अध्ययन में उद्दालक ऋषि कहते हैं कि " जागरणशील वीर श्रमणं से दोष उसी तरह दूर हो जाते हैं जैसे दाह भीरू प्राणी जलती हुई आग को देखकर दूर भाग जाता है । " जो अपने प्रति सदैव जागृत रहता है वहीं सांसारिक क्लेशों से विमुक्त हो सकता है। जिस प्रकार जागृत रहने वाले व्यक्ति के घर में चोर प्रवेश नहीं करते, उसी प्रकार जो अप्रमत्त चेता और आत्मजागृत होता है उसमें विषय वासना रूपी चोर प्रवेश नहीं कर पाते हैं। ऋषिभाषित में कहा गया है कि “पाँच इन्द्रियाँ, चार संज्ञाएँ, त्रिदण्ड, त्रिशल्य, तीन (गर्व) वाइस परिषह और चार कषाय ये सभी चोर है। इसलिए सदैव जागृत रहो, सोओ मत, धर्माचरण में प्रमाद मत करो, अन्यथा विषय कषाय आदि अनेक चोर तुम्हारे संयम और योग का हरण करने में नहीं चुकेंगे। २७ आगे पुन: कहा गया है कि "ये विषय वासना एवं कषाय रूपी चोर तुम्हारे सत्कर्मों का हरण कर तम्हें दुर्गतिदायक कर्मों की ओर प्रेरित कर देंगे।" जो साधक तो सोकर भी जागता है अर्थात् विषय वासनाओं के प्रति सुप्त होकर के भी वह अपनी आत्मा के प्रति सदैव जागृत रहता है । इसीलिए यह कहा गया है कि जो सोता रहता है अर्थात् प्रमत्त होता है वह सुखी नहीं होता और जो जागृत रहता है वह सुखी होता है । " इसके 34. इसिभासियाई, 15/7 35. तम्हा उ सव्वदुक्खाणं, कुज्जा मूलविणासणं । वालग्गाहि व्व सप्पस्स, विसदोस विणासणं ।। 36. जागरतं मुणिं वीरं, दोसा वज्जेन्ति दूरओ। जलन्तं जाततेयं वा, चक्खुसा दाहभीरुणो || 37. पचिन्दियाई सण्णा दण्डा सल्लाइं गारवा तिणि। बावीसं च परीसह, चोरा चत्तारि य कसाया । । गाही मा सुवाही, मा ते धम्मचरणे पमत्तस्स । काहिन्ति बहु चोरा, संजमजोगे हिडाकम्मं ।। 38. जागरह णरा निच्वं, मा भे धम्मचरणे पमत्ताणं । काहिन्ति बहू चोरा, दोग्गतिगमणे हिडाकम्मं ।। 39. जागरह णरा णिच्वं, जागरमाणस्स जागरति सुतं । जे सुवति ण से सुहिते, जागरमाणे सुही होति ॥ Jain Education International 119 For Private & Personal Use Only - इसि भासियाई, 15/32 - वही, 35/24 -ast, 35/20 - वही, 35/19 -वही, 35/21 -वही, 35/23 www.jainelibrary.org
SR No.002508
Book TitleRishibhashit ka Darshanik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramodkumari Sadhvi
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2009
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy