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________________ 118 . डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी किन्तु उसके साथ-साथ यह भी बताया गया है कि मात्र ज्ञान से मुक्ति नहीं होती है, जिस प्रकार कोई व्यक्ति रोग और रोग के कारणों को जानकरके भी यदि औषधि का सेवन नहीं करता है तो वह रोग मुक्त नहीं होता है। उसी प्रकार दु:ख और दुःख के कारणों का विश्लेषण करने के पश्चात भी यदि कोई व्यक्ति साधना नहीं करता है, तो वह दुःख से मुक्त नहीं हो सकता है। क्योंकि जो व्यक्ति दु:ख विमुक्ति की सम्यक् प्रकार से साधना नहीं करता है वह दु:ख विमुक्ति के प्रयत्नों में भी नये दु:खों को आमंत्रित कर लेता है। मधुरायण ऋषिभाषित के पंद्रहवें अध्याय में कहते हैं कि दुःख का अनुभव होने पर दुःखाभिभूत देहधारी दुःख के प्रतिकार का प्रयत्न तो करता है किन्तु सम्यक् प्रयत्न न होने पर वह दुःख के प्रतिकार के प्रयत्न में ही दुःख का उपार्जन कर लेता हैं जैसे खाने की इच्छा वाला मूर्ख व्यक्ति अग्नि और सांप को पकड़कर सुखार्थी होकर भी दुःख को ही प्राप्त करता है। इसी प्रकार दुःखग्रस्त व्यक्ति दु:ख के निराकरण के प्रयत्नों में नये-नये दु:ख के कारणों का संचय कर लेता है। ऋषिभाषित में दुःख के प्रतिकार के प्रयत्न में किस प्रकार की दृष्टि होनी चाहिये इसे एक उदाहरण के द्वारा स्पष्ट किया गया है। उसमें कहा गया है कि पत्थर से आहत क्रौंच पक्षी उसी पत्थर को काटता है, किन्तु सिंह बाण लगने पर बाण पर न झपट कर बाण फेंकने वाले पर झपटता है। आशय यह है कि सिंह दुःख या पीड़ा के कारण पर आघात करता है जबकि क्रौंच पक्षी उस दुःख को ही पकड़ कर दुःखी होता है। दुःखों से मुक्ति वहीं प्राप्त कर सकता है, जो दु:ख के निराकरण का प्रयत्न न करके दु:ख के कारणों के निराकरण का प्रयत्न करता है।३२ ऋषिभाषित में इस तथ्य को स्पष्ट करने के लिए एक अन्य उदाहरण भी दिया गया है। जैसे यदि कोई व्यक्ति वृक्ष के मूल को सींचता हैं तो वह उसके फल को प्राप्त करता ही हैं। किन्तु जो मूल को ही नष्ट कर देता है वह फल को प्राप्त नहीं करता है। फलाभिलाषी मूल का सिंचन करता है, किन्तु जिसे फल की अभिलाषा नहीं है। वह मूल का सिंचन नहीं करता।३३ तात्पर्य यह है कि दुःख के कारणों का निराकरण करने पर ही दु:ख से विमुक्त हुआ जा सकता है। जो कारणों का निराकरण नहीं करता है दु:ख के प्रतिकार के कितने ही प्रयत्न क्यों न करें दुःख से विमुक्ति नहीं पा सकता, क्योंकि मूल के -वही, 15/12, 14 30. दुविखतो दुःखघाताय, दुक्खावेत्ता सरीरिणो। पडियारेण दुक्खस्स, दुक्खमण्णं णिबन्धईं। आहारत्थी जहा बालो, वण्हं सप्पं च गेण्हती। तहा मूढो सुहऽत्थी तु, पावमण्णं पकुव्वती।। पत्थरेणाऽऽहतो कीवो, खिणं डसइ पत्थरं। मिगारि ऊ सरं पप्पं, सरुप्पतिं विमग्गति।। 32. वही, 15/24 33. मूलसेके फलुप्पत्ती, मूलाघाते हतं फलं। फलत्थी सिंचए मूलं, फलघाती, न सिंचति।। -इसिभासियाई, 15/24 -वही, 15/11 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002508
Book TitleRishibhashit ka Darshanik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramodkumari Sadhvi
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2009
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
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