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________________ ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन 117 नहीं चाहती है। किन्तु अनिच्छुक को चाहती हैं, अत: इच्छा को अनिच्छा से जीतकर जीव सुख पाता है।२५ ऋषिभाषित के विदुर नामक 17वें अध्याय में भी दुःख विमुक्ति की चर्चा करते हुए कहा गया है कि "जिस विद्या से बंध मोक्ष जीवों की गति और आगति तथा आत्माभाव का परिज्ञान होता है, वहीं विद्या दु:ख विमोचनी है और इसलिए दुःख विमुक्ति के इच्छुक व्यक्ति को सर्वप्रथम रोग का परिज्ञान होना चाहिये, अर्थात उसे दु:ख और कर्म बंधन को समझ लेना चाहिये, उसके पश्चात रोग का निदान अर्थात् रोग के कारणों को जानना चाहिये। फिर यह निश्चय करना चाहिये कि इस रोग को कौनसी औषधिा उपशान्त कर सकती है और उस औषधि का सेवन करके ही व्यक्ति रोग मुक्त हो सकता है। इसी प्रकार जो व्यक्ति सम्यक् रूप से कर्म अर्थात् दुःख को जान लेता है उसे जानकर उसके कारणों का विश्लेषण करता है और इन कारणों के निराकरण के लिए साधना करता है वह दु:ख विमुक्ति को प्राप्त कर लेता है।२८ व्यक्ति, जो बंधन और मुक्ति को तथा उसकी फल परंपरा को जान लेता है वहीं कर्मों अर्थात दुःख का नाश करता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि ऋषिभाषित में बंधन या दु:ख विमुक्ति के उपायों की चर्चा करते हुए प्रथमतः ज्ञान को प्रधानता दी गई है। ऋषिभाषित के इक्कीसवें अध्याय में इस बात को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि अज्ञान ही परम दुःख हैं, अज्ञान से बड़ा भय कोई नहीं है अज्ञान के कारण ही मृग, मत्स्य, पक्षी आदि दु:खी होते हैं। प्राणियों के जन्म, जरा, मृत्यु, शोक आदि अज्ञानमूलक हैं। अज्ञान के कारण औषधि संयोजन, मिश्रण आदि असफल होते हैं किन्तु ज्ञान के कारण औषधि का विन्यास, संयोजन, मिश्रण आदि सफल होते हैं। 25. तम्हा इच्छं अनिच्छाए जिणित्ता सुहमेहती। -इसिभासियाई, 40/5 26. जेण बन्धं च मोक्खं च, जीवाणं गतिरागतिं आयाभावं च जाणाति, सा विज्जा दु:क्खमोयणी। -वा, 172 27. सम्म रोगपरिण्णाणं, ततो तस्स विणिच्छत्त। रोगो सह परिण्णाणं, जोगो रोगतिगिच्छित्त।। -वही, 17/3 28. सम्म कम्मपरिण्णाणं, तो तस्स विमोक्खण। कम्ममोक्खपरिण्णाणं, करणं च विमोक्खण।। -वही, 1714 29. अण्णाणं परमं दुक्खं, अण्णाणा जायते भयं। अणाणमूलो संसारो, विविहो सव्वदेहिण।। मिग बन्झन्ति पासेहि, विहंगा मत्तवारणा। मच्छा गलेहि सासन्ति, अण्णाणं सुहमहब्भयं। जम्मं जरा य मच्चू य, सोको माणोऽवमाणणा। अण्णाणमूलं जीवाणं, संसारस्स य संतती।। विण्णासो ओसहीणं तू, सैजोगाणं व जोयणं। साहणं वा वि विज्जाणं, अण्णाणेण सिज्झति।। विण्णासो ओसहीणं तु. संजोगाणं व जोयण। साहणं वा वि विज्जाणं, णाणजोगेण सिज्झति।। -इसिभासियाई, 21/3, 4, 5, 11, 12 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002508
Book TitleRishibhashit ka Darshanik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramodkumari Sadhvi
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2009
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
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