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डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी उठता है वह दु:ख से मुक्त हो जाता है। ऋषिभाषित में कुर्मापुत्र कहते हैं कि "जो प्रमादवश भी आकांक्षा नहीं करता है, वही सुखी होता है। दु:ख विमुक्ति का उपाय है कामनाओं से ऊपर उठ जाना, वासनाओं पर विजय प्राप्त कर लेना। इस संदर्भ में पुनः कूर्मापुत्र कहते हैं कि काम को अकाम बनाकर साधक आत्मा त्राता होकर विचरण करें, क्योंकि जो कामनाओं से ऊपर उठ सकता है वही अपनी आत्मा का रक्षण कर सकता है। दुःख विमुक्ति का उपाय
___ यदि दुःख का मुख्य कारण बाह्य तथ्य न होकर चैतसिक अवस्था है तो फिर दुःख विमुक्ति तभी संभव होगी जबकि दुःख की चैतसिक कारणों का निराकरण कर दिया जायेगा। ऋषिभाषित में सारिपुत्त कहते हैं कि "व्याधि की जो चिकित्सा की जाती है, वह न सुख है न दुःख है किन्तु चिकित्सा में संलग्न रोगी को सुख और दुःख हो सकता है। मोह का क्षय करने में प्रवृत्त व्यक्ति को सुख और दुःख हो सकते हैं किन्तु जिस हेतु अर्थात् अंतरंग व्याधि का नाश कर मुक्ति प्राप्त करने के लिए मोह का क्षय किया जाता है, वहाँ न सुख है और न दुःख है।"२२ इस प्रकार हम देखते हैं कि ऋषिभाषित सुख और दुःख दोनों ही स्थितियों से ऊपर उठने के निर्देश करता है। सारिपुत्त कहते हैं कि जितेन्द्रिय वीर पुरुष के लिए अरण्य क्या और आश्रम क्या? जहाँ आंतरिक प्रसन्नता है वह अरण्य ही आश्रम है। रोग मुक्ति व्यक्ति के लिए औषधि की कोई आवश्यकता नहीं और शस्त्र के लिए अभेद्यता का कोई अर्थ नहीं, उसी प्रकार स्वभाव में रमण करने वाली आत्मा के लिए शून्य वन और बस्ती दोनों ही आनन्दकारी होते हैं। जबकि शल्य युक्त हृदय वाले व्यक्ति के लिए ये सभी दुःख का कारण होते हैं। अतः सुख और दुःख, यह तथ्यगत या वस्तुगत न होकर के चित्तगत स्थितियाँ है और इसलिए जो विशुद्ध हृदय है वह सुख और दुःख- दोनों का ही अतिक्रमण कर लेता है। पुनः कहा गया है कि "इच्छा ही जन्म-मरण प्रिय का वियोग धनहानि, बंधुहानि, और समस्त क्लेशों का आधार है। इच्छा चाहने वाले को
-'इसिभासियाई' 7/3,5
21. (अ) आलस्सेणावि जे केइ, उस्सुअत्तं ण गच्छति।
तेणावि से सुही होइ, किंतु सद्धी परक्कमे।। (ब) कामं अकामकामी, अत्तताए परिव्वए।
सावजं णिरक्जेणं परिण्णाए परिव्वएन्जासित्ति ।। त्तिबेमी।। 22. (अ) मोहक्खए ठ जुत्तस्स, दुक्खं वा जइ वा सुह।
मोहक्खए जहा-हेऊ न दुक्खं न वि वा सुह।। . (ब) णं दुक्ख ण सुहं वा वि, जहा-हेतु तिगिच्छति।
तिगिच्छिए सुजुत्तरस, दुक्खं वा जति वा सुह।। 23. दन्तिन्दियस्स वीरस्स, किं रण्णेऽस्समेण वा?
जत्थ जत्थेव मोदज्जा, तं रणं सो य अस्समो। 24. वही, 38/1-15
- वही, 38/9
-वही, 38/8
-इसिभासियाई 38/13
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