SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 117
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन 115 प्रचलित रहे हैं। साता दुःख का तात्पर्य यह होगा कि सुखद अनुभूतियों में भी दु:ख की अनुभूति अर्थात् शारीरिक और ऐन्द्रिक दृष्टि से अनुकूल विषयों की अनुभूति होने पर भी मानसिक स्तर पर दु:खी रहना। ऋषिभाषित में इस तथ्य को स्पष्ट करते हुए यह कहा गया है कि "जिस प्रकार साता दुःख से अभिभूत दु:खी व्यक्ति दु:ख की उदीरणा करता है और उसकी प्रकार असाता दुःख से अभिभूत दु:खी व्यक्ति भी दुःख की उदीरणा करता हैं। इसका तात्पर्य यह है कि अनुकूल और प्रतिकूल दोनों ही स्थितियों में जिसकी मानसिकता दुःखी बनी रहती है, वह सुखद संयोगों में भी दुःखी रहता है और दुःखद संयोगों में भी दु:खी रहता है। ऋषिभाषित के अनुसार सुख और दुःख का संवेदन सुख और दु:ख के निमित्त वस्तुगत संयोगों पर निर्भर न होकर व्यक्ति की मानसिकता पर निर्भर करता है अर्थात् जिस व्यक्ति की मानसिकता दु:खी होने की है, वह अनुकूल और प्रतिकूल दोनों संयोगों में दुःखी बना रहता है। इसके विपरीत जिसकी मानसिकता सुख की होती है, वह प्रतिकूल स्थितियों में भी सुख का संवेदन कर लेता है। इस प्रकार ऋषिभाषित में सुख और दुःख को केवल वस्तुगत तथ्य न मानकर मनोगत तथ्य भी माना गया है और यह बताया गया है कि वस्तुगत और मनोगत तथ्यों में मनोगत तथ्य ही प्रधान होता है, जिसकी मानसिकता दुःखाभिभूत है वह सुखद संयोगों में भी दुःखी रहता है, जबकि जिसकी मानसिकता सुखाभिभूत है वह प्रतिकूल संयोगों में भी हंसता रहता है। अतः सुख और दुःख के संवेदन में मानसिकता ही प्रमुख तथ्य है। इस प्रकार ऋषिभाषित की साता दुःख की अवधारणा हमारे समक्ष एक नयी दृष्टि प्रस्तुत करती हैं। दुःख का स्वरूप ऋषिभाषित के "कूर्मापुत्र" नामक अध्ययन में दुःख के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए यह कहा गया है कि जो दु:ख प्रदान करता है, वहीं दुःख है। दूसरे शब्दों में, जिन-जिन तथ्यों से दुःख उत्पन्न होता है वे ही दुःख है। इस प्रकार हम देखते हैं कि ऋषिभाषित दु:ख के कारणों का मनोवैानिक विश्लेषण करके हमें यह बताया गया है कि जो उत्सुकता या आकांक्षा या इच्छा है वहीं दुःख है और इच्छा आकांक्षा या अभिलाषा से युक्त है, वही दु:खी है। दूसरे शब्दों में मन में जो दीन भावना है, चाह या आकांक्षा है वहीं दुःख है। इसलिए दु:ख विमुक्ति का उपाय चित्त को आकांक्षाओं और इच्छाओं से रहित करना है। इस तथ्य को इस रूप में भी कहा जाता है कि जो आकांक्षा और इच्छाओं से युक्त है, वही दु:खी है और जो उससे ऊपर 20. सव्वं दुक्खावह दुक्खं, दुक्खं सऊसुयत्तण। दुक्खी व दुक्करचरियं वसित्ता सव्व दुक्खं खवेति तवसा। तम्हा अदीणमणसो दुक्खी सव्व दुक्खं तितिक्खेन्जासि। -'इसिभासियाई'7/गद्यभाग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002508
Book TitleRishibhashit ka Darshanik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramodkumari Sadhvi
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2009
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy