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________________ 114 डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी नहीं है, अपितु इन्द्रियों के प्रवृत्ति के परिणाम स्वरूप जो अनुकूल और प्रतिकूल संवेदन होते हैं, उसमें रागद्वेष नहीं करना है। इस प्रकार ऋषिभाषित इन्द्रिय निरोध के संदर्भ में एक बहुत ही सम्यक् और मनोवैज्ञानिक दृष्टि प्रदान करता है वह इन्द्रियों के अंध दमन की बात नहीं करता, अपितु उनके द्वारा होने वाली अनुकूल और प्रतिकूल अनुभूतियों में अपनी चित्तवृत्ति को सम या तटस्थ बनाए रखने की बात करता है। वे लोग जो इन्द्रिय संयम का अर्थ इन्द्रियों को उनके विषयों से विमुख कर देना मानते हैं, वे भ्रान्ति में है। इन्द्रिय संयम का अर्थ हैं इन्द्रियों के माध्यम से होने वाली अनुकूल और प्रतिकूल अनुभूतियों में माध्यस्थ वृत्ति। ऋषिभाषित का इन्द्रिय संयम का यह अर्थ न केवल जैन परंपरा में अपितु बौद्ध और गीता की परंपरा में भी मान्य रहा है। इस संबंध में जैन, बौद्ध और हिन्दू परंपराओं के दृष्टिकोणों की विस्तृत चर्चा डॉ सागरमल जैन ने अपने ग्रंथ जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन में की है। हमने यहाँ मात्र ऋषिभाषित के संदर्भ में ही इस प्रश्न को विवेचित किया है। सुख-दुख प्राणीय अनुभूति के केंद्र सुख और दुःख प्राणी की अनुभूतिगत अवस्थाएँ है, जो विषय व्यक्ति के शरीर और इन्द्रियों को अनुकूल लगते हैं, उनके संवेदन से व्यक्ति सुख का अनुभव करता है, इसके विपरीत जो विषय व्यक्ति के शरीर और इन्द्रियों के प्रतिकूल होते हैं, उनके संवेदन से व्यक्ति दुःख की अनुभूति करता हैं। इस आधार पर हम यह कह सकते हैं कि सुख और दु:ख अनुभूतिगत तथ्य हैं। सामान्यतया यह माना जाता है कि सुख और दुःख अनुभूतिगत तथ्य हैं। सामान्यतया यह माना जाता है कि सुख और दुःख अपने विषयों पर आधारित होते हैं, किन्तु सुख-दुख का यह एकमात्र आधार नहीं है। सुख और दुःख केवल वस्तुगत तथ्य नहीं है, अपितु वे मनोवैज्ञानिक तथ्य भी है। दूसरे शब्दों में सुख और दु:ख की अनुभूति आत्मनिष्ठ भी होती है। इन्द्रियगत अथवा शरीरगत समान अनुभूतियों के होने पर भी यदि व्यक्ति की मनोगत भूमिकाएँ भिन्न भिन्न हो तो, उन समान विषयों की अनुभूतियों में भी एक व्यक्ति सुख का अनुभव कर सकता है और दूसरा दुःख का अनुभव कर सकता है। इस तथ्य को ऋषिभाषित के पंद्रहवें मधुरायण नामक अध्ययन में स्पष्ट किया गया है। उस अध्याय मे साता दुःख और असाता दुःख ऐसे दो प्रकार के दुःखों का विवेचन किया गया है। यहाँ यह प्रश्न विचारणीय है कि सातादुःख का क्या तात्पर्य है? जैन परंपरा में सुखद अनुभूतियों के लिए साता और दुःखद अनुभूतियों के लिए असाता का प्रयोग सामान्य रूप से 18. जैन बौद्ध और गीता के आचारदर्शन का तुलनात्मक अध्ययन, पृ. 171-76, डॉ. सागरमल जैन 19. साया दुक्खेण अभिभूते..... णो असन्तं दुखी दुक्खं उदीरेति" -इसिभासियाई, 15/1 गाभाग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002508
Book TitleRishibhashit ka Darshanik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramodkumari Sadhvi
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2009
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
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