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ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन इन्द्रिय दमन का तात्पर्य
यहाँ स्पष्ट है कि ऋषिभाषित में इन्द्रियों के संयमन पर बल दिया गया है, किन्तु इंद्रिय संयमन का अर्थ उन्हें दमित करना नहीं है। ऋषिभाषित स्पष्ट रूप से इस तथ्य को स्वीकार करता है कि जब तक इन्द्रियाँ है तब तक उनका अपने विषयों से संपर्क होगा ही, अतः इन्द्रिय नियंत्रण का यह अर्थ नहीं है कि इंद्रियों को अपने विषयों से संपर्क स्थापित करने से रोक दिया जाये। यदि चक्षु का विषय रूप है तो चक्षु इन्द्रिय के नियंत्रण का अर्थ यह नहीं है कि आँखों को बंद करके चला जाये। ऋषिभाषित स्पष्टरूप से कहता है कि "नेत्रों के द्वारा मनोज्ञ या अमनोज्ञ रूप के ग्रहण करने पर भी न तो सुंदरता के प्रति राग करे और न असुंदरता के प्रति द्वेष करें जो साधक सुंदर पर अनुरक्त नहीं होता है और असुंदर से द्वेष नहीं करता है इस प्रकार वह जागृत रह कर कर्मों के स्रोत को रोक सकता है। किन्तु साधाक को न तो मनोज्ञ शब्दों को सुनकर प्रसन्न होना चाहिय और न अमोज्ञ शब्दों को सुनकर प्रद्वेष ही करना चाहिये, जो साधक मनोज्ञ शब्दों में आसक्त नहीं होता है और अमनोज्ञ शब्दों पर द्वेष नहीं करता है, वही अप्रमत्त माध्यस्थ भाव में रहा हुआ अप्रमत्त साधक कर्म प्रवाह को रोक सकता है।"१६ इसी प्रकार का निर्देश नासिका, रसना और स्पर्शेन्द्रिय के संदर्भ में भी कहा गया है।
उपरोक्त कथन का फलितार्थ यह है कि ऋषिभाषित के वर्द्धमान ऋषि की दृष्टि में इन्द्रिय निरोध का तात्पर्य इन्द्रियों को उनके विषय से असम्पृक्त रखना नहीं है। वस्तुतः आँख है, तो रूप दिखेगा ही, कान है, तो शब्द सुनाई देंगे ही, जिह्वा है तो स्वाद आयेगा ही, नासिका है तो गन्ध की अनुभूति होगी ही। मनुष्य के लिए यह असंभव है कि वह अपनी इंद्रियों का उनके विषय से संबंध ही न होने दे। ऋषिभाषित में वर्धमान ऋषि हमें जो उपदेश देते हैं उनका तात्पर्य यह नहीं है कि हम इन्द्रियों को उनके विषयों से पूर्णतया विमुख कर दें, अपितु उसका तात्पर्य इतना ही है कि इन्द्रियों के अपने विषयों से संपर्क होने पर जो मनोज्ञ या अमनोज्ञ अनुभूति की स्थिति निर्मित होती है उसमें रागद्वेष की प्रवृत्ति न की जाय। जब तक आँख है तो हमे उसे खुली तो रखना होगा और आँख के खुली रहने पर यह असंभव है कि सुंदर या असुंदर रूप न दिखाई दे। ऋषिभाषित के अनुसार साधक की साधना का महत्त्व इसी में है कि इन मनोज्ञ और अमनोज्ञ अनुभूतियों की स्थिति में वह मनोज्ञ के प्रति राग और अमनोज्ञ के प्रति द्वेष न करें। इन्द्रिय संयम का अर्थ इन्द्रियों की प्रवृत्तियों का निरोध
16. मणुण्णम्मि अरज्जन्ते, अदुढे इयरम्मि या
असुत्ते अविरोधीणं, एव सोए पहिज्जति।। 17. देखें-वही, 29/5-11
-इसिभा
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