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________________ 112 इन्द्रियाँ और उनके विषय ऋषिभाषित श्रमण परंपरा का ग्रंथ है अतः उसमें इंद्रियों के नियंत्रण पर विशेष बल दिया गया है। यद्यपि इन्द्रिय संयम और इन्द्रिय नियंत्रण का प्रतिपादन ऋषिभाषित में स्थान-स्थान पर हुआ है, किन्तु इंद्रियाँ और उनके विषय को लेकर ऋषिभाषित के वर्धमान नामक अध्ययन में जो प्रतिपादन में उपलब्ध होता है वह मनोवैज्ञानिक दृष्टि से विशेष महत्त्वपूर्ण है। ज्ञातव्य है कि ऋषिभाषित में वर्धमान ने इन्द्रिय संयम के संबंध में एक विशेष दर्शन प्रस्तुत किया है वह उनके उपदेशों के रूप में आचारांग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध के भावना नामक अध्ययन में तथा उत्तराध्ययन के 32वें प्रमाद नामक अध्ययन में भी उपलब्ध होता है। १० ऋषिभाषित के अनुसार वर्धमान ऋषि को जब यह पूछा गया कि सभी ओर से स्रोत बह रहे हैं तो उन स्रोतों के प्रवाह को किस प्रकार रोका जा सकता है? उन स्रोतों का निवारण किस प्रकार संभव है? इस प्रश्न के उत्तर में वे कहते हैं कि " सुप्त अर्थात प्रमत्त मुनि के पांचों इन्द्रियाँ जागृत रहती हैं और जागृत मुनि की पाँचों इंद्रियाँ सुप्त रहती है । ११ पाँचों इन्द्रियों के सक्रिय होने पर कर्म रज आती है और पांचों इन्द्रियों के निष्क्रिय होने पर कर्मरज का आना निरूद्ध हो जाता है। १२ इस प्रकार ऋषिभाषित के अनुसार साधना की दृष्टि से पांचों इन्द्रियों की सक्रियता और निष्क्रियता एक महत्त्वपूर्ण तथ्य है। उसमें आगे स्पष्टरूप से यह कहा गया है कि दुर्दमनीय बनी हुई ये इन्द्रियाँ संसार का हेतु बनती है। जबकि सम्यक प्रकार से नियंत्रित होने पर ये ही पांचों इन्द्रियाँ निर्वाण का भी कारण बन जाती हैं क्योंकि अनियन्त्रित इन्द्रियाँ साधक को बलपूर्वक उसी प्रकार कुमार्ग पर ले जाती है जैसे अनियन्त्रित अश्व सारथी को राजमार्ग से हटाकर बीहड़ पथ में ले जाता हैं। १४ इसके विपरीत संयमित इन्द्रियाँ उसी प्रकार सुमार्ग पर आगे ले जाती है जैसे शिक्षित अश्व सारथी को प्रशस्त मार्ग पर ले जाता है । १५ 10. सवन्ति सव्वतो सोता, किं ण सोतोणिवारणं? पुट्ठे मुणि आइक्खे, कहं सोतो पिहिज्जति । 11. पंच जागरओ सुत्ता, पंच सुत्तस्स जागरा | पंचहिं रयमादियति, पंचहिं च रयं ठए । । 12. इसिभासियाई, 29/2 13. दुद्दन्ता इंदिया पंच, संसाराय सरीरिणं । ते चैव नियमिया सम्मं, णेव्वाणाय भवन्ति हि ।। 14. दुद्दन्तेहि दिएहऽप्पा, दुप्पहं हीरए बला। दुद्दन्तेहिं तुरंगेहिं, सारही वा महापहे ।। 15. इन्दिएहिं सुदन्तेहिं ण संचरति गोयरं । विधेयेहिं तुरंगेहिं, सारहि व्वा व संजए।। डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी Jain Education International For Private & Personal Use Only - इसिभासियाई, 29/1 -वही, 29/2 - वही, 29 / 13 -वही, 29/14 -वही 29/15 www.jainelibrary.org
SR No.002508
Book TitleRishibhashit ka Darshanik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramodkumari Sadhvi
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2009
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
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