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डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी
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की सुरक्षा करता है। लाक्षाकार लाख से आभूषण बनाने के लिए लाख को तपाता है उसी प्रकार निर्ग्रन्थ साधक वेदना निवृत्ति सेवा, ईर्ष्या समिति का पालन, संयम का निर्वाह, जीवन के रक्षण और धर्म चिन्तन के लिए आहार करता है। १ सारिपुत्त नामक अड़तीसवें अध्याय में कहा गया है कि "जिस सुख से सुख प्राप्त होता है वही आत्यन्तिक सुख है और ऐसा सुख वरेण्य भी है किन्तु जिस सुख से दुःख की प्राप्ति होती हो उस सुख का मुझे समागम न हो अर्थात् ऐसा सुख वरेण्य नहीं है । २२ सारिपुत्त के इस कथन का आशय यह है कि वे सब सुखानुभूतियाँ जो कि अनुभूति में सुखद होकर भी जिनका परिणाम सुखद न हो, वे साधक के लिए वरेण्य नहीं है। प्रश्न अनुभूति की सुखदता या दुःखदता का नहीं है, प्रश्न उनके विपाक की सुखदता और दुःखदता का हैं देह का संरक्षण और भौतिक सुखों की अनुभूति उसी सीमा तक क्षम्य मानी गई है, जब तक कि उसके परिणाम दुःखद न हों या वे व्यक्ति के चित्त की असमाधि का करण न बनें। सारिपुत्त की दृष्टि में साधक के लिए मुख्य लक्ष्य चित्त की समाधि है, जिस प्रकार सुखानुभूति का सारिपुत्त विरोध नहीं करते। वे उस प्रकार की सुखानुभूति का विरोध करते हैं जिसके कारण आसक्ति और तृष्णा बढ़ती हो अथवा चित्त की समाधि भंग होती हो। वे तो स्पष्ट रूप से कहते हैं कि मनोज्ञ भोजन, मनोज्ञ शय्यासन सुंदर आवास में रहकर यदि भिक्षु समाधिपूर्वक ध्यान करता हो तो उन सबका उपयोग उनके लिए वर्जित नहीं है, क्योंकि साधक का मुख्य लक्ष्य तो चित्त समाधि या चित्तशांति ही है। यदि अमनोज्ञ भोजन करके और अमनोज्ञ शय्यासन का उपभोग करके और असुंदर आवास में रहकर भिक्षु दुःखपूर्वक ध्यान करता है अर्थात् उसकी समाधि और चित्तशान्ति विचलित रहती है तो ऐसा कष्ट कर जीवन भी उसके लिए उचित नहीं है। २३
यहाँ हम देखते हैं कि ऋषिभाषित में कुछ ऋषि तो अवश्य ही ऐसे हैं जो . स्पष्टरूप से देहदण्डन रूप निवृत्तिमार्ग का निषेध करते हैं और यह मानते हैं कि उस सीमा तक दैहिक मूल्यों का संरक्षण भी आवश्यक है जिस सीमा तक उनसे साधक की चित्त समाधि या मानसिक शांति भंग न होती हो । उपर्युक्त संदर्भों में यह भी स्पष्ट होता है कि ऋषिभाषित के कुछ ऋषि तो अवश्य ही ऐसे हैं जो देहदण्डन रूप निवृत्तिमार्ग के समर्थक नहीं है। यह सत्य है कि ऋषिभाषित उस श्रमण परंपरा का ग्रंथ है, जो मूलतः सन्यासीमार्गी या निवृत्तिमार्गी है, किन्तु इस निवृत्ति का प्रयोजन सदैव ही चित्तसमाधि या चित्तशांति रहा है। इसलिए अधिकांश श्रमण परंपरा के ऋषियों का उपदेश यही रहा है कि सांसारिक विषय भोगों के प्रति उस आसक्ति
21. 'इसिभासियाई' 25/6 गद्यभाग
22. वही, 38 / 1
23. वही, 38/2, 3
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