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ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन
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या तृष्णा का परित्याग किया जाय, जो साधक की चित्त समाधि को, उसकी आत्मिक प्रसन्नता को भंग करती है। यहाँ विरोध भोगों का नहीं अपितु उनसे उत्पन्न तृष्णा और आसक्ति का है। ऋषिभाषित की निवृत्तिमार्गी जीवनदृष्टि हमें मात्र यही संकेत करती है कि जहाँ तक भोतिक जीवन का मूल्य, देह संरक्षण और चित्त समाधि में साधक हैं वहाँ तक वे निकृष्ट नहीं कहे जा सकते, किन्तु यदि उनके कारण चित्त की समाधि भंग होती है, तृष्णा और आसक्ति का उदय होता है तथा मनुष्य की आकंक्षा उसके व्यक्तित्व को जर्जरित करने लगती है तो ऐसे भोग या सांसारिक अनुभूतियाँ निकृष्ट हैं। ऋषिभाषित में वर्धमान नामक उन्नतीसवें अध्यय में भी इसी बात का प्रतिपादन किया गया है कि " सच्चा साधक इंद्रियों के मनोज्ञ विषयों पर न तो आसक्त होता है और न अमनोज्ञ विषयां पर घृणा ही करता हैं इस प्रकार जो भोग और त्याग दोनों में ही जागृत रहकर अविरोध पूर्वक उनका सेवन करता है, वह कर्म स्रोत को रोक देता हैं । २४
यहाँ हम यह कह सकते हैं कि ऋषिभाषित की जीवनदृष्टि भोगवाद या वैराग्यवाद अथवा प्रवृत्ति या निवृत्ति के मध्य एक सम्यक संतुलन बनाने का प्रयास करती है। ऋषिभाषित दैहिक मूल्यों के संरक्षण को उसी सीमा तक स्वीकार करता है जिस सीमा तक वे व्यक्ति की चित्त समाधि और संयम साधना में साधक बनते
हैं।
जिस प्रकार एक जनसेवक उस सीमा तक अपने शरीर आदि की सुरक्षा करता है जिस सीमा तक वह उसे उसके सेवा कार्य के लिए योग्य बनाए रखता है। इसी प्रकार एक संन्यासी भी अपने शरीर का उस सीमा तक संरक्षण करता है जब तक वह उसकी आत्म साधना व लोक मंगल में सहायक बनती है। ऋषिभाषित में आहर ग्रहण और आहार त्याग के छः छः कारणों की जो चर्चा है, उससे इस तथ्य को स्पष्टरूप से समझा जा सकता है । २५
नैतिक मानदण्ड
सामान्यतया हिंसा, झूठ असत्य चोरी व्यभिचार आदि को ऋषिभाषित में दुराचार की कोटि में गिना गया और उनसे विरत रहने का निर्देश दिया गया है। इसी प्रकार क्रोध, मान, माया, लोभ और इन चार कषायों को भी तथा इनके आधार के रूप में रागद्वेष को भी अनैतिक या दुराचार के अंतर्गत वर्गीकृत किया जाता है। अतः स्वाभाविक रूप से यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि ऋषिभाषित में किसी कर्म के नैतिक या अनैतिक होने के आधार क्या है? दूसरे शब्दों में नैतिकता या अनैतिकता की
24. 'इसिभासियाई' 29/3-10 25. वही, 25/6 गद्यभाग
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