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________________ 134 डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी कसौटी क्या है? क्यों हम किन्हीं कर्मों को नैतिक और किन्हीं कर्मों को अनैतिक मानते हैं। ऋषिभाषित में स्पष्टरूप से तो इस प्रश्न का कोई उत्तर नहीं दिया गया है। किन्तु यदि हम उसमें उपलब्ध विवरणों पर विचार करें तो हमें उसमें सदाचार और दुराचार के संदर्भ में कुछ कसौटियाँ उपलब्ध हो जाती है। यह पूर्व में ही स्पष्ट किया जा चुका है कि ऋषिभाषित निवृत्तिमार्गी परंपरा का ग्रंथ है। उसका चरम साध्य निर्वाण की प्राप्ति है। निर्वाण ही दुःख विमुक्ति का सूचक है अतः हम स्पष्टरूप से यह कह सकते हैं कि ऋषिभाषित में किसी कर्म के अनैतिक मानने का आधार यह है कि उसके कारण स्वयं उस कर्म के कर्ता को और दूसरे व्यक्तियों को दु:ख प्राप्त होता हैं। वे सभी कर्म जो व्यक्ति और समाज के लिए मानसिक अथवा भौतिक दु:खों के कारण बनते हैं, अनैतिक माने जा सकते हैं। ऋषिभाषित के पंद्रहवें अध्याय में स्पष्टरूप से यह कहा गया है कि संसार में पूर्वकृत पापकर्म ही दु:ख का मूल है। दूसरे शब्दों में दुःख का मूल पाप है। इसलिए भिक्षु पाप कर्म के निरोध के लिए सम्यक् आचरण करें। इस आधार पर हम यह कह सकते हैं कि ऋषिभाषित में दुःख और दुःख विमुक्ति यही कर्म के नैतिक और अनैतिक होने का आधार है। जो कर्म व्यक्ति स्वयं को और दूसरे व्यक्तियों को दुःख प्रदान करता है, वह अनैतिक है और वे सभी कर्म स्वयं उस व्यक्ति के और दूसरे व्यक्तियें के दु:खों का नाश करते हैं वे नैतिक हैं। यहाँ यह प्रश्न भी स्वाभाविक रूप से उत्पन्न होता है कि दुःख का मूल कारण क्या है? क्योंकि दु:ख का मूल कारण ही अनैतिकता का आधार होगा, इसके विपरीत दुःख विमुक्ति कैसे हो सकती है यही एक ऐसा तथ्य है कि जो नैतिकता · का आधार बन सकता है। ऋषिभाषित के प्रथम अध्याय में यही बताया गया है कि "निर्ममत्व, विमुक्ति और विरति का अनुसरण करना चाहिये क्योंकि यही दुःख विमुक्ति के आधार है।८ अतः हम यह कह सकते हैं कि ऋषिभाषित में भी सुख और दुःख ही नैतिकता और अनैतिकता के आधार हैं, किन्तु नैतिकता के इस बाह्य आधार के साथ-साथ ऋषिभाषित के इक्कीसवें अध्याय में स्पष्टरूप से यह कहा गया है कि अज्ञान ही परम दुःख है। अज्ञान ही भय का कारण है, अज्ञान ही संसार है।२९ इसके विपरीत अज्ञान का परिवर्जन करके ज्ञान के आधार पर सर्व दु:खों का अंत किया जा सकता है, अतः एक अन्य दृष्टि से हम यह भी कह सकते हैं कि ऋषिभाषित सुख-दु:ख की अनुभूतिमूलक कसौटी के साथ-साथ ज्ञान और 26. संसारे दुःखमूलं तु, पावं कम्मं पुरेकडं। . पावकम्मणिरोधाय, सम्म भिक्खु परिव्वए।। -'इसिभासियाई' 15/6 27. वही, 15/6 28. वही, 1/1 29. वही, 21/1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002508
Book TitleRishibhashit ka Darshanik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramodkumari Sadhvi
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2009
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
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