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________________ 26 डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी फल शुभ तथा अशुभ कर्मों का फल दु:ख रूप होता है। यद्यपि अपनी निवृत्तिमार्गी दृष्टि के आधार पर वह यह मानता है कि संसार में जो सुखदायक कर्म हैं वे अन्ततः दुःखदायी ही होते हैं।२२ जहाँ तक ऋषिभाषित के नैतिक उपदेशों की विषयवस्तु का प्रश्न है, वह लगभग वहीं है जो कि सामान्यतया सभी भारतीय धर्म-दर्शनों में पाई जाती है। ऋषिभाषित के अनेक अध्यायों में अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह का प्रतिपादन पाया जाता है और वह असत्यभाषण, प्राणहिंसा, और निंदनीय कर्म से दूर रहने का निर्देश देता है। उसमें आत्मवत् व्यवहार का मूलभूत नैतिक सिद्धांत भी प्रतिपादित हुआ।२३ स्वार्थ, परार्थ और आत्मार्थ के नैतिक प्रश्नों को लेकर ऋषिभाषित सदैव ही आत्मार्थ को ही श्रेष्ठतम मानता है। यह विचार उसके 35वें अध्याय में पर्याप्त विस्तार के साथ प्रतिपादित किया गया है। इसी अध्याय में नैतिक जीवन के लिए अप्रमत्त होना आवश्यक माना गया है। उसमें कहा गया है कि जो श्रमण सजग है उससे दोष उसी तरह दूर भाग जाते हैं, जैसे कि पशु दूर भाग जाते हैं।२५ ऐन्द्रिक विषयों में आसक्त होने पर मनुष्य की क्या गति होती है, इसका सौदाहरण विवेचन ऋषिभाषित के इंद्र नाग नामक 41 वें अध्याय में विस्तार से किया गया है। इसके 45 वें वैश्रमण नामक अध्याय में मुख्यरूप से विस्तारपूर्वक पाप से दूर रहने का उपदेश उपलब्ध होता है। -इसिभासियाई 30वाँ अध्ययन गाथा। 5 21. कल्लाणा लभति कल्लाणं, पावं पावा तु पावति। हिंसं लभति हन्तारं, जइत्ताय पराजय।। मण्णन्ति भदका भदकाइं.मधरं मधरं ति माणति। कडुयं कडुयंभणियं ति, फस्सं फरुसं ति माणति।। 22. जं सुहेण सुहं लद्धं, उच्चन्तसुखमेव तं। जं सुखेण दुहं लद्धं, मा मे तेण समागमो।। -इसिभासियाई 30 वाँ अध्ययन गाथा। 7 - इसिभासियाई 38 वाँ अध्ययन गाथा। 1 23. आतं परं च जाणेज्जा, सव्वभावेण सव्वधा। आयटुं च परटें च, पियं जाणे तहेव य।।13।। -इसिभासियाई 35 वाँ अध्ययन गाथा। 13 24. आतट्ठो णिज्जरायन्तो, परट्ठो कम्मबन्धणं। अत्ता समाहिकरणं, अप्पणो य परस्स या।17।। आतट्टे जागरो होहि, मा परट्ठाहि-धारए। आतट्ठो हायए तस्स, जो परट्ठाहि-धारए।।15।। आतं परं च जाणेज्जा, सव्व-भावेण सव्वधा। आयलैं चपरटें च, पियं जाणे तहेव य।।13।। सए गेहे पलित्तम्मि, किं धावसि परातक। सयं गेहं णिरित्ताणं, ततो गच्छे परातक।।14।। -इसिभासियाई 35 वाँ अध्ययन गाथा। 17-15-13-14 25. जागरन्तं मुणिं वीरं, दोमा वजेन्ति दूरओ।। जलन्तं जाततेयं वा, चक्खुसा दाहभीरुणो।।24।। -इसिभासियाई 35 वाँ अध्ययन गाथा। 24 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002508
Book TitleRishibhashit ka Darshanik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramodkumari Sadhvi
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2009
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
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