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________________ ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन 25 पंचमहाभूतवाद, पंचास्तिकायवाद तथा सन्ततिवाद के उल्लेख उपलब्ध होते हैं जो इस तथ्य को सूचित करते हैं कि ऋषिभाषित में चार्वाक, जैन और बौद्ध इन तीनों ही श्रमण परंपराओं के दार्शनिक अवधारणाओं के बीज उपस्थित हैं। यह भी सुस्पष्ट है कि जिस प्रकार वैदिक परंपरा में ईश्वर की अवधारणा मीमांसा और सांख्य को छोड़कर सभी दर्शनों का केंद्रीय तत्त्व रही है, उसी तरह से कर्म सिद्धांत श्रमण परंपराओं का केंद्रीय तत्त्व है। ऋषिभाषित के अधिकांश अध्यायों में किसी न किसी रूप में कर्मसिद्धांत का निरूपण पाया जाता है, उसमें कर्म को ही बंधन का मुख्य आधार बताया गया है और यह माना गया है कि वही परिणामों के सुख-दुःख का आधार है। उसमें कर्म बन्धन से मुक्ति को ही जीवन का लक्ष्य या चरम पुरुषार्थ निरूपित किया गया है। जहाँ तक ऋषिभाषित में वर्णित धार्मिक उपदेशों का प्रश्न हैं वे स्पष्टरूप से व्यक्ति के आध्यात्मिक विशुद्धिकरण से संबंधित हैं। ऋषिभाषित के 37वें श्रीगिरि अध्ययन को छोड़कर किसी भी अध्याय में हमें धार्मिक कर्मकाण्डों के प्रतिपादन संबंधित कोई उल्लेख नहीं मिलता है। श्रीगिरि अध्ययन में अग्निहोत्र का प्रतिपादन है। फिर भी इसके अधिकांश ऋषियों के दृष्टिकोणों के आधार पर ऐसा लगता है कि ऋषिभाषित कर्मकाण्डीय धर्म का समर्थक न होकर के उस धर्म का समर्थक है जो आध्यात्मिक विशुद्धि की दशा में आगे ले जाता है। वासना और कषायों का विगलन, राग और द्वेष की वृत्तियों से ऊपर उठकर समभाव या अनासक्ति की साधना यही ऋषिभाषित का मूलभूत लक्ष्य है और इसे हम ऋषिभाषित के प्रत्येक अध्याय में किसी न किसी रूप में उपस्थित पाते हैं। धार्मिक साधना के रूप में यदि कोई प्रतिपादन हमें ऋषिभाषित में मिलता है तो वह मात्र ध्यान का है। उसमें उसके गर्दभिल्ल नामक अध्याय में कहा गया है कि जिस प्रकार शरीर में सिर प्रधान है या वृक्ष के लिए मूल प्रधान है उसी प्रकार सभी साधु कर्मों में ध्यान की प्रधानता है। यह भी स्पष्ट है कि ऋषिभाषित में सर्वत्र निर्वृत्तिमार्गी या सन्यासमार्गी परंपरा का ही समर्थन देखा जाता है। उसकी इसी विशेषता के आधार पर हम यह कह सकते हैं कि ऋषिभाषित मुख्यतः आध्यात्मिक निवृत्तिमार्गी श्रमण परंपरा का ग्रंथ है। नैतिक उपदेशों की दृष्टि से ऋषिभाषित यह मानकर चलता है कि व्यक्ति जैसा कार्य करता है उसे तदनुरूप ही फल मिलता है और परिणामतः शुभ कर्मों का 20. सीसं जहा सरीरस्स, जहा मूलं दुमस्स या सव्वस्स साधुधम्मस्स, तहा झाणं विधीयते।।16।। -इसिभासियाई 22वाँ अध्ययन गाथा। 14 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002508
Book TitleRishibhashit ka Darshanik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramodkumari Sadhvi
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2009
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
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