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डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी
आदि । यद्यपि ये सभी ईसवी पूर्व छठी शती से पहले के हैं । जैन, बौद्ध अथवा ब्राह्मण परंपरा में इनके जो उल्लेख मिलते हैं, उससे ऐतिहासिकता की पुष्टि हो जाती है। वल्कलचिरि, गर्दभिल्ल, मातंग, आर्द्रक, पिंग और इन्द्रनाग के भी उल्लेख जैन और बौद्ध परंपरा में उपलब्ध है, अतः इनकी ऐतिहासिकता में संदेह नहीं किया जा सकता । किन्तु जहाँ तक सौरियायण, वारिषेण, आरियायण, हरिगिरि, वारत्तक, ऋषिगिरि, तारायण, सिरिगिरि आदि का प्रश्न है, इनकी ऐतिहासिकता को सुनिश्चित करने का हमारे पास ऋषिभाषित के अतिरिक्त अन्य को विकल्प नहीं रह गया है। फिर भी यह कहना भी उचित नहीं होगा कि ये काल्पनिक व्यक्ति हैं। वास्तविकता यह है कि ऋषिभाषित के अतिरिक्त अन्य ऐतिहासिक प्रमाणों के अभाव में हम न तो इनकी ऐतिहासिकता को सुनिश्चित कर सकते हैं और न यही कह सकते हैं कि ये काल्पनिक व्यक्ति हैं। वायु, सोम, वरुण, यम और वैश्रमण इन पाँच ऋषियों में से चार अर्थात् सोम, यम, वरुण और वैश्रमण, जैन, बौद्ध और ब्राह्मण परंपरा में लोकपाल के रूप में मान्य रहे अतः इनकी ऐतिहासिकता को सुनिश्चित करना एक कठिन कार्य है, जहाँ तक वायु का प्रश्न है। जैन परंपरा में वायुभूति नामक गणधर का और महाभारत में वायु नामक ऋषि का उल्लेख तो मिलता है किन्तु ये वहीं हैं ऐसा कहना कठिन है । यम और वरूण के उपदेशों के संकलन भी उपषिदों में उपलब्ध हैं किन्तु सामान्यतया इन्हें देव ही माना गया है। अतः इन्हें ऐतिहासिक व्यक्ति कहना कठिन है। संभवत: ब्राह्मण परंपरा का अनुसरण करते हुए ऋषिभाषित में भी इन चार लोकपालों के उपदेशों को संकलित किया है। किन्तु इस संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता है कि इन नामों वाले कोई ऋषि भी हुए हों । ऋषिभाषित के ऋषियों के उपदेशों के मुख्य विषय
ऋषिभाषित में वर्णित विषयों को हम मुख्यरूप से तीन भागों में विभाजित कर सकते हैं - (1) दार्शनिक अवधारणाएँ (2) धार्मिक उपदेश और (3) नैतिक मान्यताएँ।
जहाँ तक ऋषिभाषित में प्रस्तुत दार्शनिक अवधारणाओं का प्रश्न है वे मुख्य रूप से हमें उत्कल नामक 20वें अध्याय में तथा पार्श्व नामक 31 वें अध्याय सिरिगिरी नामक 37 वें अध्याय में मिलती है। इनमें उत्कल अध्ययन में चार्वाकों के भौतिकवाद का, पार्श्व अध्ययन में जैनों के पंचास्तिकायवाद का तथा श्रीगिरि नामक अध्ययन में विश्व की शाश्वत्ता का उल्लेख मिलता है। किन्तु इसके अतिरिक्त सन्ततिवाद की अवधारणा वज्जियपुत्त नामक द्वितीय अध्याय में तथा महाकाश्यप नामक 9वें अध्याय में तथा सारिपुत्त नामक 3रे अध्याय में विस्तार से मिलती है। इसके अतिरिक्त ऋषिभाषित में कर्म सिद्धांत का भी विभिन्न अध्यायों में उल्लेख पाया जाता है। यदि हम तत्त्वमीमांसीय दृष्टि से विचार करें तो हमें ऋषिभाषित में भौतिकवाद,
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