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ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन
इस प्रकार हम देखते हैं कि ऋषिभाषित में दार्शनिक विवेचना के साथ ही साथ धार्मिक और नैतिक उपदेशों का ही प्राधान्य है। इसमें तत्त्वमीमांसा का केवल उसी दृष्टि से प्रस्तुतिकरण किया गया है, जिसके आधार पर अनासक्ति और निवृत्ति का उपदेश दिया जा सके और इस दृष्टि से कर्मसिद्धान्त को केन्द्रीय स्थान दिया गया है। हम पाते हैं कि इसमें आत्मवादी और अनात्मवादी दोनों ही प्रकार के दर्शन कर्मसिद्धांत को आधारभूत मानकर चलते हैं। ग्रंथ में ईश्वर और उसके सृष्टि कर्तृत्त्व का कहीं भी समर्थन नहीं हुआ है। इसी प्रकार इसमें कुछ अध्यायों में ज्ञान की प्रधानता और आत्मसाधना में उसके महत्त्व को तो स्वीकार किया गया है, किन्तु दार्शनिक दृष्टि से किसी ज्ञान मीमांसीय समस्या की चर्चा इसमें नहीं देखी जाती है। इसमें तत्त्वमीमांसीय चर्चाओं को भी उसी सीमा तक उठाया गया है जहाँ तक कि वे धर्म और नैतिकता के लिए आवश्यक है। अतः हम कह सकते हैं कि ऋषिभाषित मुख्यतया एक धार्मिक और नैतिक उपदेश प्रधान ग्रंथ है।
__ ऋषिभाषित के पैतालिस अध्यायों के प्रवक्ताओं और उनकी विषयवस्तु के संबंध में भी संक्षेप में इतना जान लेना आवश्यक है। इस संबंध में विस्तृत विवेचन डॉ. सागरमल जैन ने अपनी ऋषिभाषित की भूमिका में किया है। हम उसी आधार पर यहाँ एक संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत कर रहे हैं, ताकि इन ऋषियों की ऐतिहासिकता तथा इनकी दार्शनिक मान्यताओं को समझने में सुविधा हो। १. नारद ऋषि
ऋषिभाषित का प्रथम अध्ययन नारद ऋषि या देव नारद से संबंधित है। नारद का उल्लेख जैन, बौद्ध और वैदिक-इन तीनों ही परम्पराओं में हुआ है। जैन परंपरा में नारद ऋषि का उललेख न केवल ऋषिभाषित में हुआ है, अपितु समवायांग, ज्ञाताधर्मकथा, औपपातिक, ऋषिमण्डल और आवश्यकचूर्णि में भी इनका उल्लेख मिलता है। समवायांग में उन्हें आगामीकाल में होने वाला तीर्थंकर माना गया हैं ज्ञाता धर्मकथा और ऋषिमण्डल में ऋषिभाषित के देवनारद को कल्छुल नारद कहा गया है। ज्ञाता के नारद अरिष्टनेमि और कृष्ण के समकालीन माने गए। ऋषिभाषित की संग्रहणी गाथा भी इन्हें अरिष्टनेमि के काल में होने वाला प्रत्येक बुद्ध मानती है। ज्ञाताधर्मकथा में नारद के व्यक्तित्व को विरोधात्मक रूप में प्रस्तुत किया गया है। एक
ओर उन्हें भद्र और अनेक विधाओं का जानकर कहकर सम्मानित किया गया, वहीं दूसरी ओर उन्हें कलुषित और कलहप्रिय जैसे कठोर शब्दों से अवमानित भी किया गया है।२८ औपपातिक में इन्हें ब्राह्मण परिव्राजक के रूप में उल्लेखित किया गया 26. समवायांगसूत्र प्रकीर्ण समवाय 252/3, जैन विश्व भारती (लाडनूं) 27. ज्ञाताधर्मकथा-16/139-142 28. वही, 16/139-142
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