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________________ ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन 87 निर्विकार सत्ता का अस्तित्व ही नहीं है। किंतु यदि सत् परिवर्तशील है, तो वह त्रिकाल में एक रूप में नहीं हो सकता और जो त्रिकाल में एक रूप नहीं है, उसे सत् कहलाने का अधिकार भी नहीं है। जो दार्शनिक एकान्त रूप से परिवर्तनशीलता के. समर्थक हैं वे यह मानते हैं कि कोई भी वस्तु नित्य नहीं है, अपितु वह अपने सत्ता काल में नयी वस्तु को जन्म देकर समाप्त हो जाती है। पुनः वह उत्पन्न वस्तु एक नयी वस्तु को जन्म देकर समाप्त हो जाती है। इस प्रकार से केवल संतति प्रवाह बना रहता है। अतः ये विचारक किसी नित्य वस्तु को न मानकर संतति के आधार पर ही जगत की परिवर्तनशीलता की व्याख्या करते हैं जिस प्रकार से संतान परंपरा से कोई वंश चलता रहता है उसी प्रकार संतान परंपरा से यह जगत भी चलता रहता है। वस्तुतः कोई नित्य तत्त्व नहीं है, एक पर्याय दूसरी पर्याय को जन्म देकर विनाश को प्राप्त होती रहती है। इस प्रकार से उत्पत्ति और विनाश का क्रम चलता रहता है। जीवन और जगत के संदर्भ में इस उत्पत्ति और विनाश के क्रम को स्वीकार करना ही संततिवाद है। भारतीय दार्शनिक चिन्तन में बौद्ध परंपरा में इस संततिवाद की स्थापना हुई है। जहाँ तक ऋषिभाषित का प्रश्न है उसमें संततिवाद की चर्चा वज्जियपुत्त नामक द्वितीय अध्याय में, महाकाश्यप नामक नवें अध्याय में, तथा सारिपुत्त नामक अड़तीसवें अध्याय में हुई है। महाकाश्यप नामक नवें अध्याय में कहा गया है कि पूर्वकृत पुण्य और पाप ही संसार संतति का मूल है।५३ जिस प्रकार बीज से वृक्ष और वृक्ष से बीज की परंपरा चलती है, उसी प्रकार संसार में संतति प्रवाह चलता है। जिस प्रकार अण्डे और बीज की विविधता के आधार पर विभिन्न प्रकार के पक्षी और धान्य उत्पन्न होते हैं उसी प्रकार से देहधारियों के विविध कर्मों से नाना प्रकार के वर्ण और संतानों की उत्पत्ति होती है५४ जिस प्रकार तेल और बत्ती के समाप्त होने पर दीपक की संतति या लो परंपरा समाप्त हो जाती है, उसी प्रकार आदान और बंध का अभाव होने पर भव संतति समाप्त हो जाती है। इस प्रकार संतति का बना रहना संसार है और संतति का समाप्त हो जाना निर्वाण है। जिसकी चित्त संतति समाप्त हो जाती है, वह निर्वाण को प्राप्त जाता है। ध्यान देने योग्य तथ्य यह है कि ऋषिभाषित में संततिवाद के जो संकेत सूत्र उपस्थित है, वे मुख्यतया कर्म संतति की ही चर्चा करते हैं। कर्म संतति से उनका तात्पर्य यह है कि एक कर्म से दूसरा कर्म और दूसरे से तीसरा इस प्रकार कर्म परंपरा 53. संसारसंतईमूलं, पुण्णं पावं पुरेकडं। पुण्ण पाव निरोहाय, सम्मं संपरिव्वए।। -'इसिभासियाई' 9/5 54. जहा अंडे जहा बीए, तहा कम्म सरीरिण। संताणे चेव भोगे य, नाणावण्णत्तमच्छईं। -वही, 9/9 55. णेहवत्तिक्खए दीवो, जहा चयति संतति। आयाणबंधरोहम्मि, तहऽप्पा भवसंतई। -वही, 922 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002508
Book TitleRishibhashit ka Darshanik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramodkumari Sadhvi
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2009
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
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