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________________ 88 डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी चलती रहती है। किंतु तत्त्वमीमांसीय दृष्टि से संततिवाद वह सिद्धांत है, जो किसी नित्य तत्त्व को स्वीकार न करें समस्त जगत को एक प्रक्रिया के रूप में व्याख्यायित करता है। संततिवाद के अनुसार जगत एक प्रक्रिया है। चित् और अचित् सभी वस्तुतः एक प्रक्रिया मात्र है अतः आत्मा और पदार्थ की भी प्रक्रिया से भिन्न कोई सत्ता नहीं है। संततिवाद जगत की व्याख्या एक कार्य कारण व्यवस्था के रूप में करता है। कार्य कारण की श्रृंखला का सतत रूप से चलते रहना यही संसार है और उसी शृंखला का समाप्त हो जाना यही निर्वाण है। ऋषिभाषित अपनी संततिवाद की विवेचना में मुख्यरूप से तो कर्म संतति की चर्चा करता है, किन्तु कर्म संततिवाद भी अंततोगत्वा तो इसी तत्त्वमीमांसीय निष्कर्ष पर पहुँचता है कि समस्त संसार एक प्रक्रिया या प्रवाह है। वस्तुतः संततिवाद निरपेक्ष अनित्यवावाद के संदर्भ में जगत् को व्याख्यायित करने की एक शैली है। जब हम परिवर्तशीलात को ही सत् का एकमात्र लक्षण मान लते हैं तो हमें यह मानने के लिए विवश होना पड़ता है कि यह संसार परिवर्तनशील प्रपंचों के अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं है। संसार अनंत धाराओं का एक प्रवाह है और प्रत्येक धारा संतति प्रवाह के रूप में ही प्रवाहित होती रहती है। संसार में न तो ऐसा कुछ है जो नित्य हो और न ऐसा कुछ ही है जो अकारण हो। कार्य कारण की एक श्रृंखला होती है, जिसमें प्रत्येक कारण कार्यरूप में और प्रत्येक कार्य कारण रूप में परिवर्तित होता रहता है। कार्य कारण की इस श्रृंखला को ही हम संततिवाद कह सकते हैं। इसे ही बौद्ध-परंपरा में प्रतीत्यसमुत्पाद भी कहा गया है। दार्शनिक दृष्टि से क्षणिकवाद, कार्य-कारणवाद, प्रतीत्य-समुत्पाद-ये सभी संततिवाद की अवधारणा का विकास है। प्रतीत्यसमुत्पाद और संततिवाद ही आगे चलकर शून्यवाद का रूप ले लेता है। शून्यवाद शून्यवाद बौद्ध दर्शन का एक विकसित सिद्धांत है। शून्यवाद में किसी भी निरपेक्ष तत्त्व की सत्ता नहीं मानी गई है, इस सिद्धांत के अनुसार समग्र अस्तित्व सापेक्षिक है और कोई भी ऐसी सत्ता नहीं है, जो त्रिकाल में अपरिवर्तित नित्य और शाश्वत हों। ऋषिभाषित में इस प्रकार के शून्यवाद का हमें कोई भी निर्देश प्राप्त नहीं होता, क्योंकि दार्शनिक शून्यवाद एक परवर्ती विकसित सिद्धांत है और ऋषिभाषित जैसे प्राचीन ग्रंथ में उसकी उपस्थिति संभव भी नहीं है। फिर भी शून्यवाद की अवधारणा का मूल बीज हमें ऋषिभाषित के बीसवें उत्कलवादी नामक अध्याय में मिल जाता है। यहाँ पांच प्रकार के उत्कलवादी उल्लेखित है- (1) दण्डोत्कल, (2) रज्जोत्कल, (3) स्तेनोत्कल, (4) देशोत्कल और (5) सर्वोत्कल।५६ इसमें 56. पंच उक्कला पण्णता तंजहा: दण्डक्कले? रज्जुक्कले 2. तेणुक्कले, 3. देसुक्कले, 4. सव्वुक्कले 5 __ -इसिभासियाई, 20/गद्यभाग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002508
Book TitleRishibhashit ka Darshanik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramodkumari Sadhvi
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2009
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
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