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ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन
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मंकीगीता भी नियतिवाद का प्रतिवादन करती है इसलिए उनके अनुसार महाभारत के मंकीऋषि निश्चितरूप से ऋषिभाषित के मंखलिपुत्र ही है।५ मंकीगीता में नियतिवाद का समर्थन करते हुए स्पष्ट रूप से कहा गया है कि जो कुछ भी होता है वह व्यक्ति पुरुषार्थ या प्रयत्न के आधार पर नहीं बल्कि दैवलीला या भाग्य से होता है।
ऋषिभाषित में उल्लिखित मंखलिगोशाल के उपदेशों में भी परोक्ष रूप से नियतिवाद की स्पष्ट झलक दिखाई देती है। ऋषिभाषित में स्पष्टरूप से यह कहा गया है कि, जो व्यक्ति संसार की परिणति को देखकर स्पन्दित या क्षुभित नहीं होते हैं। वस्तुतः वे ही व्यक्ति त्यागी आत्मरक्षक और अनासक्त होते हैं।६ कहने का तात्पर्य यह है कि विश्व की प्रत्येक घटना अपने क्रम में घटित होती है। व्यक्ति के चाहने और न चाहने पर भी अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियों का नियमन नहीं होता। वस्तुतः सांसारिक घटनाओं को सांयोगिक जानकर साक्षीभाव या अनासक्त भाव से रहने वाला ही सच्चा त्यागी या नियतिवादी होता है
वस्तुतः नियतिवादी विचारधारा प्रकृति के नियमानुसार घटित होने वाली घटनाओं पर बल देती हैं। वस्तुतः नियतिवाद का उपदेश अनासक्त जीवन-दृष्टि के विकास करने की प्रेरणा प्रदान करती है। वास्तव में मंखलिगोशाल का यही आध्यात्मिक नियतिवाद का संदेश है। गीता भी आसक्ति तोड़ने के लिए नियतिवाद का उपदेश देती है।
उपर्युक्त आधारों पर हम यह कह सकते हैं कि ऋषिभाषित, भगवती के मंखलिगौशाल और महाभारत के मंकीऋषि भिन्न-भिन्न व्यक्ति न होकर एक ही व्यक्ति हैं। क्योंकि तीनों परंपराएँ इन्हे नियतिवाद का समर्थक और संस्थापक मानती है। इतना ही नहीं अभिलेखीय प्रमाण भी यही सिद्ध करते हैं कि मंखलिगोशाल
आजीविक परंपरा के श्रेष्ठ आचार्य थे, जिनके नेतृत्व में आजीविक सम्प्रदाय विकसित विस्तृत हुआ। जैनागम का ऋषिभाषित ही एक ऐसा ग्रंथ है, जो मंखलिगोशाल को "अर्हत् ऋषि" कहकर सम्मान प्रदान करता है और उनके उपदेशों को "प्रत्येकबुद्ध भाषित प्रवचन" कहकर प्रामाणिकता की मोहर लगा देता है। १२. जण्णवक्क (याज्ञवल्क्य)
ऋषिभाषित के बारहवें अध्ययन में याज्ञवल्क्य ऋषि का उल्लेख हुआ है। श्रमण और ब्राह्मण दोनों परंपराओं में इनका उल्लेख प्राप्त होता है। जैन परंपरा में
65. ऋषिभाषित की भूमिका - डॉ. सागरमल जैन 66. से एजति वेयति खुन्मति घट्टति फन्दति
चलति उदीरेति, तं तं भावं परिणमति ण से ताती।।2।।
-'इसिभासियाई' 11/गद्यभाग
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