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________________ 38 डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी ११, मंखलिपुत्त ऋषिभाषित के ग्यारहवें अध्ययन में मंखलिपुत्र के उपदेश संकलित है। इन्हें मंखलिगोशाल भी कहा जाता है। मेखलिगोशाल का उल्लेख जैन, बौद्ध और हिन्दू इन तीनों परंपराओं में मिलत है। जैन परंपरा में ऋषिभाषित के अतिरिक्त मंखलिगोशाल का उल्लेख भगवतीसूत्र, उपासकदशा, विशेषावश्यकभाष्य, आवश्यक नियुक्ति, आवश्यक चूर्णि आदि अनेक ग्रंथों में हुआ है।६१ भगवती में मंखलिगोशाल का जीवन वृत्तान्त और उनकी दार्शनिक मान्यताओं का प्रतिपादन हुआ है।६२ इनके संबंध में यह कहा गया है कि महावीर की दीक्षा के पश्चात दूसरे चातुर्मास में इनकी भेंट महावीर से हुई और छह वर्ष तक उनके साथ-साथ विचरण किया, किन्तु नियतिवाद के प्रश्न को लेकर दोनों में वैचारिक मतभेद हो गया। फलतः मंखलि महावीर से पृथक् हो गए। भगवती में यह कहा गया है कि महावीर की दीक्षा के चौबीस वर्ष बाद उन्होंने अपने आपको तीर्थंकर घोषित किया या दार्शनिक दृष्टि से यह कहना अधिक उचित होगा कि उन्होंने एक स्वतंत्र संप्रदाय स्थापना की थी, जो आजीविक नाम से विख्यात हुआ था। बौद्ध परंपरा में भी मंखलिगोशाल का उल्लेख अनेक ग्रंथों में मिलता है। दीर्घनिकाय में इन्हें बुद्ध के समकालीन छह तीर्थंकरों में से एक बताया गया है। थेरगाथा में इनका उल्लेख गोसालथेर के रूप में हुआ है। गोशाल के संबंध में जैन और बौद्ध परंपरा में यद्यपि मतैक्य नहीं है, फिर भी दोनों परंपराओं में इनका उल्लेख होने से इनके संबंध में यह तो स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि ये एक ऐतिहासिक व्यक्ति थे। दोनों परंपराएँ इन्हें नियतिवाद का समर्थक मानती हैं। वस्तुतः नियतिवादी वह विचारधारा है जो पुरुषार्थ की अपेक्षा नियति पर अर्थात् संसार की स्वाभाविक व्यवस्था पर अधिक बल देती है। डॉ. सागरमल जैन के अनुसार मंखलिगोशाल के दार्शनिक चिंतन या विचारों का परवर्ती जैन और बौद्ध ग्रंथों में, जो प्रस्तुतिकरण हुआ है, उसे मात्र दार्शनिक विचार-विकृति ही कहा जा सकता है।६४ ___ जहाँ तक हिन्दू परंपरा का प्रश्न है महाभारत में हमें मंकीगीता के नाम से मंकी ऋषि के उपदेश उपलब्ध होते हैं। इस संबंध में डॉ. सागरमल जैन कहते हैं कि 61. (इ) भगवती सूत्र, 550 (ई) उपासक दशा, 6/20, 21, 28 (उ) विशेषावश्यक भाष्य-गाथा 1928 (ऊ) आवश्यक नियुक्ति, गाथा 474 62. भगवती 15वॉ शतक 63. (अ) दीघनिकाय, पृ. 53 (ब) थेरगाथा 23 64. ऋषिभाषित की भूमिका-डॉ. सागरमल जैन For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.002508
Book TitleRishibhashit ka Darshanik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramodkumari Sadhvi
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2009
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
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