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________________ डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी लोक क्या है? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए इसमें बताया गया है कि लोक जीव और अजीव रूप है। इस प्रकार वहाँ सृष्टि के मूलतत्त्व को न तो केवल चेतन माना गया है और न केवल जड़, अपितु यह माना गया है कि यह सृष्टि जड़ और चेतन दोनों ही प्रकार की सत्ताओं से निर्मित है। इस प्रकार सृष्टि के स्वरूप संबंधी यह दृष्टिकोण वेदान्तियों और विज्ञानाद्वैतवादी बौद्धों से इस अर्थ में भिन्न है, कि वे समस्त सृष्टि को चेतना का ही विकार मानते हैं। वहाँ भौतिकवादियों से इस अर्थ में भिन्न है कि भौतिकवादियों की दृष्टि में जगत का मूलतत्त्व मात्र जड़ है। भौतिवादियों का सृष्टि संबंधी दृष्टिकोण हमें ऋषिभाषित के उत्कलवादी नामक 20 वें अध्याय में प्राप्त होता है। जबकि पार्श्व की दृष्टि में यह जगत जड़-चेतन उभय रूप है। 82 पुनः जगत या लोक के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए उसे द्रव्य लोक, क्षेत्र लोक, काल लोक और भाव लोक- ऐसे चार प्रकारों में विभक्त किया गया है। दूसरे शब्दों में पार्श्व के अनुसार जगत की व्याख्या द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव इन चार आयामों से की जा सकती है? इस प्रकार पार्श्व सृष्टि के चार आयाम मानते हैं। लोक की स्वतंत्र सत्ता एवं उपयोग के संदर्भ में चर्चा करते हुए यह कहा गया है कि यह लोक आत्मभाव में है अर्थात् लोक की प्रत्येक वस्तु अपनी-अपनी निज सत्ता रखती है। प्रत्येक का अस्तित्व स्वतंत्र है, फिर भी स्वामित्व एवं उपभोग की अपेक्षा से यह माना गया है कि यह लोक जीव या आत्मा के लिए है, क्योंकि सृष्टि का उपभोक्ता चेतन तत्त्व जीव ही है। जड़ तत्त्व में भोक्ता भाव का अभाव है। अतः जीव को लोक का स्वामी कहा गया है। किन्तु जहाँ तक सृष्टि के रचना घटको का प्रश्न है, पार्श्व यह मानते हैं कि यह सृष्टि जीव और अजीव अर्थात् जड़ और चेतन उभय से निर्मित है। पुन: लोकभाव की चर्चा करते हुए यह माना गया है कि यह सृष्टि अनादि और अनिधन होते हुए भी पारिणामिक है। सृष्टि की पारिणामिक नित्यता की यह अवधारणा जैन परंपरा में पार्श्व के काल से लेकर आधुनिक युग तक स्वीकृत रही है। इस संबंध में हम पूर्व में भी चर्चा कर चुके हैं। जैनों का यह दृष्टिकोण सृष्टि की यथार्थता को स्वीकार करने के साथ-साथ उसकी परिवर्तनशीलता को भी स्वीकार करता है। परिवर्तनों मेंअनुस्यूत नित्य तत्त्व की स्वीकृति जैनों की अपनी विशिष्टता है, जो प्रस्तुत वृत्ति में भी स्वीकार की गई है। जगत की यह परिवर्तनशीलात जीव और पुद्गल में किससे संबंधित है यह प्रश्न भी सृष्टि के स्वरूप में महत्त्वपूर्ण है । जैसा कि हम पूर्व में सूचित कर चुके हैं सांख्य आत्मा को अपरिवर्तशील मानता है२८ और प्रकृति को परिवर्तनशील मानता है, जबकि सामान्य रूप से जैन दार्शनिक और विशेष 28. "" भारतीय दर्शन" दत्त एवं चटर्जी, सांख्य दर्शन पृ. 169 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002508
Book TitleRishibhashit ka Darshanik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramodkumari Sadhvi
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2009
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
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