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________________ ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन विश्व के मूलतत्त्व का स्वरूप सृष्टि के स्वरूप को लेकर मुख्यरूप से तीन प्रकार के दृष्टिकोण उपलब्ध होते हैं-एक दृष्टिकोण उन अद्वेतवादियों का है जो सृष्टि का मूलतत्त्व अद्वय निर्विकार आत्मा को मानते हैं। उनके अनुसार यह परिवर्तनशील जगत मात्र प्रतीति है, सत् नहीं। वे उसे माया या विवर्त ही मानते हैं।२२ द्वैतवादी दार्शनिकों में सांख्य दार्शनिक सृष्टि के मूल में पुरुष और प्रकृति ऐसे दो तत्त्व मानते हैं। उनके अनुसार पुरुष निर्विकार कूटस्थ नित्य है, जबकि प्रकृति परिणामी नित्य है वे सृष्टि के समस्त परिवर्तनों को प्रकृति के परिवर्तनों के रूप में स्वीकार करते हैं।२३ बौद्ध दार्शनिक चित्त और पदार्थ-दोनों को ही परिवर्तनशील मानते हैं। उनके अनुसार सत्ता उत्पाद-व्ययात्मक अर्थात् परिणामी और अनित्य है। यद्यपि सैद्धांतिक दृष्टि से परिवर्तन की सतत प्रक्रिया को वे स्वीकार करते हैं, किन्तु उसमें किसी नित्य तत्त्व की सत्ता को स्वीकार नहीं करते।२४ _सृष्टि प्रक्रिया के संदर्भ में जैनों का दृष्टिकोण औपनिषदिक अद्वैत-वादियों से इस अर्थ में भिन्न है कि जहाँ औपनिषदिक अद्वैतवादी सृष्टि को और उसमें घटित परिवर्तनों को माया कहते हैं वहाँ जैन दार्शनिक उसे सत् मानते हैं। सांख्यों से उनका दृष्टिकोण इस अर्थ में भिन्न है कि जहाँ सांख्य आत्मा को अपरिणामी और प्रकृति को परिणामी मानते हैं, वहाँ जैन दार्शनिक आत्मा और जड़ सत्ता (प्रकृति) दोनों को ही परिणामी नित्य मानते हैं।२५ सृष्टि के संबंध में जैन दृष्टिकोण बौद्ध दृष्टिकोण से इस अर्थ में भिन्न है कि वे जड़ और चेतन दोनों को परिणामी मानते हुए भी नित्य मानते हैं, जबकि बौद्ध उन्हें परिणामी तो मानते हैं किन्तु नित्य नहीं।२६ जैन परंपरा का सृष्टि संबंधी दृष्टिकोण ऋषिभाषित के 'पार्श्व' नामक अध्ययन में हमें विस्तारपूर्वक मिलता है। सृष्टि के स्वरूप के संबंध में पार्श्व का दृष्टिकोण ऋषिभाषित के 31वें पार्श्व नामक अध्ययन में लोक का स्वरूप निम्न रूप में प्रतिपादित है२७22. "भारतीय दर्शन''-दत्त एवं चटर्जी शंकर का अद्वैतवाद, पृ. 231 32 23. वही, सांख्य दर्शन, पृ. 169, 70, 65 24. वही, पृ. 87, 88, 89 25. 'तत्त्वार्थसूत्र' उत्पाद् व्ययध्रोव्युक्तं सत्"5/29 26. "भारतीय दर्शन" दत्त एवं चटर्जी, सांख्य दर्शन, पृ. 88-89 27. (1) केऽयं लोए? कईविधे लोए? कस्स वा लोए? के वा लोयभावे? के वा अद्रेण लोए? पवुच्चई? (2) चउविहे लोए वियाहिते-दव्वतो लोए, खेत्तओ लोए, कालओ लोए, भावओ लोए। (3) अत्तभावे लोए सामित्तं पडुच्च जीवाणं लोए, निव्वतिं पडुच्च जीवाणं चेव अजीवाण चेव। (4) अणादीए, अणिहणे, परिणामिए लोकभावे। (5) लोकातीति लोको। -इसिभासियाई 31/गद्यभाग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002508
Book TitleRishibhashit ka Darshanik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramodkumari Sadhvi
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2009
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
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