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डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी सृष्टि के मूलभूत तत्त्व अनादि और अनन्त है तो फिर ईश्वर ने किसकी सृष्टि की? (4) क्या वह मात्र उनके संयोगों का कर्ता है? (5) पुन: यदि यह भी मानें कि वह उन मूलभूत घटकों से ही सृष्टि की रचना करता है तो यह प्रश्न उपस्थित होता है कि सृष्टि की रचना में उसका क्या प्रयोजन है? (6) यदि सृष्टि की रचना में उसका कोई प्रयोजन है तो वह आप्तकाम नहीं हो सकता और यदि वह आप्तकाम नहीं है तो ईश्वर नहीं है। (7) पुनः यदि वह अपनी लीला के लिए सृष्टि की रचना करता है तो भी यह प्रश्न तो अपनी जगह खड़ा ही रहता है कि उसकी यह लीला की इच्छा क्यों है, क्यों वह दूसरे प्राणियों को सुख-दुख की पीड़ाओं में डालकर अपना मनोरंजन करना चाहता है। ये सब ऐसे प्रश्न है जिनका सम्यक् समाधान कर पाना संभव नहीं है। यही कारण है कि ऋषिभाषित के किसी भी ऋषि द्वारा इस प्रकार का दृष्टिकोण प्रस्तुत नहीं किया गया, जिसमें ईश्वर द्वारा जगत के सृष्टि करने का सिद्धांत स्वीकार किया गया हो।
पुनः यदि ईश्वर किन्हीं मूलतत्त्वों को लेकर जगत की सृष्टि करता है अथवा प्राणियों के पुण्य पाप के आधार पर जगत की सृष्टि करता है तो इससे उसके सर्वशक्तिमान होने के संबंध में प्रश्नचिन्ह खड़ा होता है? क्योंकि यदि वह जगत की सृष्टि करने में अन्य तत्त्वों पर निर्भर रहता है अथवा प्राणियों के पुण्य पाप पर निर्भर करता है तो वह सर्वशक्तिमान और स्वतंत्र नहीं माना जा सकता। इसलिए ऋषिभाषित के ऋषियों ने संभवतः यही उचित समझा होगा, कि सृष्टि को अनादि-अनन्त मान कर सृष्टि कर्तृत्त्य की दार्शनिक समस्याओं से मुक्ति प्राप्त कर ली जाये। ऋषिभाषित में सृष्टि के अनादि-अनन्त होने का तात्पर्य
ऋषिभाषित में सृष्टि के अनादि और अनन्त मानने का यह अर्थ नहीं है कि उसमें कोई परिवर्तन ही नहीं होता है। ऋषिभषित में सृष्टि को जो अनादि, अनन्त और नित्य कहा गया है, उसका तात्पर्य मात्र यही है कि वह न तो किसी काल विशेष में उत्पन्न हुई थी और न वह किसी काल विशेष में समाप्त ही हो जोयगी। उसके अनादि-अनन्त होने का तात्पर्य सृष्टि प्रक्रिया के अनादि-अनन्त होने से है, क्योंकि यदि जगत या सृष्टि में परिवर्तनशीलता को अस्वीकार किया जायेगा, तो फिर सृष्टि शब्द का ही कोई अर्थ नहीं रह जायेगा। वस्तुतः सृष्टि का तात्पर्य यह है उत्पत्ति और विनाश की एक अविच्छिन्न धारा। सृष्टि के अनादि-अनंत होने का अर्थ उत्पाद और व्यय की धारा का अनादि-अनंत होना है। अत: ऋषिभाषित के पार्श्व और श्रीगिरि के द्वारा जो सृष्टि की नित्यता का प्रतिपादन किया गया है वह कूटस्थ नित्यता न होकर पणिामी नित्यता है।
21. 'स्याद्वादमन्जरी' कारिका-6, पृ. 28-29
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