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________________ ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन नित्य है, शाश्वत है, अक्षय है, अव्यय है और नित्य अवस्थित है।"१७ मात्र यही नहीं पार्श्व नामक अध्याय में यह भी कहा गया है कि "जगत के मूल घटक जिन्हें पंचास्ति काय कहा जाता है वे भी किसी के द्वारा सृष्ट नहीं है। वे न तो किसी के द्वारा उत्पन्न किये हुए हैं और न कभी उत्पन्न ही होते हैं अर्थात् जगत के मूल घटक भी जगत के समान ही नित्य ही हैं।१८ लोक के संदर्भ में यह अनादि अनन्त होने की अवधारणा जैन आगम भगवती सूत्र में भी पाई जाती है। उसमें यह बताया गया है कि यह जगत अनादि काल से हैं और अनन्त काल तक रहेगा।९ पार्श्व की, जगत के अनादि, अनन्त और असृष्ट होने की, जो अवधारणा थी, उसे भगवती सूत्र में न केवल स्वीकार किया गया है अपितु महावीर ने यह कह कर मैं भी यही मानता हूँ, उस पर अपनी सम्पुष्टि की मोहर भी लगायी है। इस प्रकार ऋषिभाषित में हमें सृष्टि के अनादिकाल से होने और अनन्त काल तक बने रहने की अवधारणा का उल्लेख उपलब्ध होता है। वस्तुतः श्रमण परंपरा के वे सभी ऋषि, जो ईश्वर को सृष्टि कर्तृत्त्व के दायित्व से मुक्त रखना चाहते थे, उन्होंने यही दृष्टिकोण अपनाना अधिक उचित समझा कि यह लोक अनादिकाल से है और अनन्तकाल तक रहेगा। मात्र यही नहीं इस जगत के मूल घटक भी जिन्हें जैन परंपरा पंचास्तिकाय के नाम से जानती है, अनादि और अनन्त है, क्योंकि सृष्टि के मूल घटकों को अनादि और अनन्त न मानने पर यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से उत्पन्न होगा कि वे कहाँ से आये? वस्तुतः वे सृष्टि और सृष्टि के मूल तवों का किसी को सृष्टा नहीं मानना चाहते थे। क्योकि यदि हम किसी सृष्टा की अवधारणा को सवीकार करेंगे, तो उससे जुड़े हुए अनेक दार्शनिक प्रश्न उपस्थित होंगे यथा-(1) जगत के सृष्टा ने इस सृष्टि को स्वयं अपने से बनाया या किन्हीं अन्य तत्त्वों से? (2) यदि अन्य तत्त्वों से बनया तो वे अन्य तत्त्व किसके द्वारा बनाये गए? (3) यदि वे 17. लोए ण कताई णासी ण कताइ ण भवति ण कताइ ण भविस्सति भुविं च भवति य भविस्सति य, धुवे णितिए सासए अक्खए अव्वए अवट्ठिए निच्चे। -इसिभासियाई.31 वां अध्ययन, गद्यभाग, Y 138 18. से जहा णामते पंच अस्थिकाया ण कयाति णासी जाव णिच्चा एवामेव लोकेऽवि ण कयाति णासी जाव णिच्चा.... - इसिभासियाई (वही) 31 वां अध्ययन, गद्यभाग 19. किं सते लोए? अणंते लोए? अय मेयारूवे अज्झिात्थिए चिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुपज्जित्था-किं सअंते लोए? अणते लोए?-तस्स वि य णं अयमठेएवं खलु मए खंदया। चउव्विहे लोए पण्णत्ते, सं जहा दव्वओ, खेत्तओ, कालओ, भावओ। -भगवती सूत्र 212, सूत्र 27-30 20. भगवती सूत्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002508
Book TitleRishibhashit ka Darshanik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramodkumari Sadhvi
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2009
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
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