________________
ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन रूप से पार्श्व जी व और पुद्गल दोनों को ही गतिशील या परिवर्तनशील मानते हैं२९ वे यह भी मानते हैं कि इस गतिशीलता या परिवर्तनशीलता के भी द्रव्य, क्षेत्र, काल
और भाव की अपेक्षा से चार आयाम है अर्थात् परिवर्तन भी द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव चारों में ही घटित होता है।
लोक के साथ-साथ लोक की इस परिवर्तनशीलता को भी अनादि अनिधन माना गया है अर्थात् यह नहीं कहा जा सकता है कि लोक की यह परिवर्तनशीलता की प्रक्रिया कब से है और कब तक रहेगी। परिवर्तन की प्रक्रिया अनादिकाल से घटित हो रही है और अनन्त काल तक घटित होती रहेगी।
पुनः जीव और पुद्गल दोनों की गतिशीलता को स्वीकार करते हुए भी पार्श्व ने स्पष्ट रूप से यह बताया है कि यहाँ जीव या चेतन तत्त्व स्वभावतः ऊर्ध्वगामी होता है वहाँ पुद्गल या जड़तत्त्व स्वभावतः अधोगामी होता है। दूसरे शब्दों में जहाँ जीव विकासोन्मुख है, वहाँ पुद्गल या जड़ में विकासोन्मुखता का अभाव है। इसीलिए जैनों की यह मान्यता है कि आत्मा पर कर्म का आवरण जितना घनीभूत होता है उतना ही आत्मा का विकास अवरूद्ध हो जाता है। पार्श्व यह भी स्पष्ट करते है कि पुद्गल की जो परिवर्तनशीलता है वह उसके स्वभाव में ही अनुस्यूत है किन्तु जीव में जो विकार
और परिवर्तन घटित होते हैं वे मुख्यतया जीव या आत्मा के कर्म-संकल्प के परिणाम स्वरूप होते हैं। दूसरे शब्दों में जड़ तत्त्व की परिवर्तनशीलता स्वतः प्रसूत है, चेतन त्तव की परिवर्तनशीलता स्वतः प्रसूत न होकर वह जड़ तत्त्व अथवा कर्म के निमित्त से होती है। जीव में जो भी परिवर्तन घटित होते हैं, उनका निमित्त कारण तो पुद्गल का परिणाम ही है।३० व्याख्या की दृष्टि से हम यह कह सकते हैं कि जीव में दो प्रकार के परिवर्तन घटित होते हैं-(1) अनुभूतिगत या ज्ञानगत और (2) संकल्पगत। बद्ध जीवों या संसारी जीवों में ये दोनों ही प्रकार के परिवर्तन होते हैं, जबकि मुक्तात्मा में केवल ज्ञानगत परिवर्तन होते हैं, किन्तु उनका निमित्त भी पौदगलिक परिवर्तन ही है इस प्रकार पार्श्व जीव या आत्मा में परिवर्तनशीलता को स्वीकार करके भी, उसे स्वतः परिवर्तनशील नहीं मानते, उसमें घटित परिवर्तनों का दायित्व भी पुद्गल में घटित परिवर्तन को ही मानते हैं।
___अन्त में पार्श्व यह कहते हैं कि जो इस परिवर्तनशील जगत के प्रपन को देखे हुए भी उसमें अनासक्त रहता है, वह संसार का अर्थात् भवभ्रमण का नाश कर
29. वही, पृ. 165, 66, 76 30. (अ) उद्धगामी जीवा अहेगामी पोग्गला।
(ब) कम्मप्पभवा जीवा, परिणामप्पभवा पोग्गला।
-'इसिभासियाई' 31/9(अ), पृ. 134
-वही, 31/9 (ब) पृ. 134
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org