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________________ 84 डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी देता है और भवभ्रमणजन्य वेदना का भी नाश कर देता है और पुनः इस संसार में नहीं फंसता है।३१ सृष्टि के संबंध में श्री गिरि का दृष्टिकोण ___ 'ऋषिभाषित' के 37वें श्री गिरि नामक अध्ययन श्रीगिरि के सृष्टि संबंधी विचारों का प्रतिपादन निम्नरूप से हुआ है श्रीगिरि कहते हैं कि सबसे पहले जल था। उसमे अण्डा सन्तप्त हुआ अर्थात् अण्डा फूला। उससे यह लोक उत्पन्न हुआ और स्वसित हुआ अर्थात् चेतन सृष्टि उत्पन्न हुई-यह कुछ लोगों की मान्यता है। किन्तु श्री गिरि इस मान्यता से सहमत नहीं है। वे स्पष्टरूप से कहते हैं कि यह जगत वरुण अर्थात् जल देवता का विधान नहीं है अर्थात् उससे निर्मित नहीं है। दूसरे शब्दों में, श्रीगिरि सृष्टि के जल से उत्पन्न होने अथवा वरुण के द्वारा सृष्ट होने के सिद्धांत से सहमत नहीं है। वे उस सिद्धांत से भी सहमत नहीं है, जो यह मानता है कि यह विश्व 'माया' है। दूसरे शब्दों में, श्री गिरि न तो यह सृष्टि को किसी देव विशेष द्वारा सृष्ट हुई ऐसा मानते हैं और न वे इसे माया से उत्पन्न नहीं मानते हैं। वस्तुतः वे सृष्टि के काल विशेष में सृष्ट होने के सिद्धान्त को नहीं मानते हैं। विश्व कभी नहीं था, ऐसा भी नहीं है। कभी नहीं है ऐसा भी नहीं है और यह कभी नहीं रहेगा, ऐसा भी नहीं है अर्थात् यह विश्व अनादि से है और अनन्त काल तक रहेगा। इस प्रकार वे सृष्टि के काल विशेष में निर्मित होने के सिद्धांत का खण्डन करते हैं। फिर भी इस अध्याय में हमें पार्श्व नामक अध्याय के समान यह चर्चा उपलब्ध नहीं होती है कि इस जगत के मूलतत्त्व क्या है? जगत के मूलतत्त्व और उसके स्वरूप के संबंध में इस अध्याय से हमें कुछ भी जानकारी उपलब्ध नहीं होती है। सृष्टि के संबंध में उत्कलवादियों के विचार (अ) सृष्टि का भौतिकवादी दृष्टिकोण ऋषिभाषित के 20वें उत्कलवादी नामक अध्ययन में भौतिकवादियों के सृष्टि संबंधी विचारों को निम्न रूप से प्रस्तुत किया गया है-- ___ 'उत्कलवादी' नामक ऋषिभाषित के 20वें अध्याय में यद्यपि स्पष्टरूप से सृष्टि के उत्पत्ति और विनाश की कोई चर्चा नहीं मिलती है, किन्तु इसमें यह कहा गया है कि-'पंचभूतों' का स्कन्ध होना ही संसार है और इनका पृथक-पृथक् हो जाना ही संसार परंपरा का उच्छेद है अर्थात् पंचमहाभूतों के समुदाय (स्कन्ध) से सृष्टि या 31. णिटिठतकरणिज्जे सन्ते संसारमग्गा मड़ाई णियण्ठे णिरूद्धपवंचे वोच्छिण्णसंसारे वोच्छिण्णसंसारवेदणिज्जे ___ पहीणसंसारे पहीणसंसारवैयणिज्जे णो पुणरवि इच्चभं हव्वमागच्छति। -'इसिभासियाई' 31/3 गद्यभाग (इ) पृ. 135 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002508
Book TitleRishibhashit ka Darshanik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramodkumari Sadhvi
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2009
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
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