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ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन ऋषि का निर्देश इसमें नहीं है। भौतिकवाद का निर्देश उत्कटवादियों के नाम से हुआ है। इसमें जिन ऋषियों के उपदेशों का संकलन है उनमें नारद, असित, देवल, अंगिरस, याज्ञवल्क्य, विदुर, अरुण, उद्दालक, द्वैपायन आदि औपनिषदिक परम्परा के सुविश्रुत ऋषि है। इसी प्रकार महाकाश्यप, सारिपुत्त और वज्जियपुत्त का उल्लेख बौद्ध परम्परा में पाया जाता है। पार्श्व, वर्धमान, अम्बड़, मातंग, आर्द्रक, तेतलीपुत्त के उल्लेख जैन परम्परा में पाये जाते हैं। मंखलिपुत्त, रामपुत्त, संजय (वेलट्ठीपुत्त) आदि बुद्ध और महावीर के समकालीन अन्य श्रमण परम्पराओं के ऋषि हैं। इससे यह फलित होता है कि ऋषिभाषित में ईसवीं पूर्व छठीं शताब्दी तक के लोकविश्रुत अनेक ऋषियों के उपदेशों का संकलन किया गया था। उसमें इस तथ्य का कोई विचार नहीं किया गया है कि किस परम्परा विशेष से सम्बन्धित है। समन्वय, धार्मिक सहिष्णुता और उदारता का इसे बढ़कर अन्य कोई उदाहरण नहीं हो सकता है। जहाँ तक इन ऋषियों की ऐतिहासिकता का प्रश्न है, शुब्रिग और डॉ. सागरमल जैन आदि ने इस तथ्य को विस्तारपूर्वक प्रमाणित किया है कि इसमें सोम, यम, वरुण और वैश्रवण इन चार लोकपालों को छोड़कर इसके बाकी सभी व्यक्ति ऐतिहासिक हैं, काल्पनिक नहीं। इन ऋषियों में से लगभग पैंतीस ऋषि ऐसे हैं, जिनके उल्लेख ऋषिभाषित के अतिरिक्त भी जैन, बौद्ध और वैदिक परम्परा के अन्य ग्रंथों में भी पाये जाते हैं जिसके आधार पर इनकी ऐतिहासिकता सुनिश्चित की जा सकती है।
हमने प्रथम अध्याय में इन्हीं सब पक्षों के संबंध में स्पष्ट एवं विस्तारपूर्वक चर्चा की है। इस अध्याय के लेखन के संदर्भ में शुब्रिग और डॉ. सागरमल जैन की भूमिकाएँ हमारे लिये उपजीव्य रही हैं।
इस शोध प्रबंध का द्वितीय अध्याय मुख्य रूप से ज्ञान मीमांसा से सम्बन्धित है; किन्तु मुझे यह स्वीकार करने में किसी प्रकार का संकोच नहीं है, कि प्रस्तुत ग्रंथ में किसी भी ज्ञानमीमांसीय सिद्धांत का निरूपण नहीं पाया जाता। इसका कारण यह है कि यह ग्रंथ उस काल का है जब ज्ञान मीमांसीय सिद्धांत अस्तित्व में ही नहीं आये थे। प्रस्तुत ग्रंथ मात्र अज्ञान को दु:ख का मूल कारण बताकर ज्ञान के महत्त्व की स्थापना करता है। इसमें ज्ञान से तात्पर्य संसार, दु:ख और दुःख के कारणों के ज्ञान से ही लिया गया है। ज्ञान के महत्त्व की चर्चा इसके इक्कीसवें, तैंतीसवें और पैंतालीसवें अध्याय में विस्तार से पाई जाती है। फिर भी वह उपदेशात्मक हैदार्शनिक या तार्किक नहीं है। अतः इतना तो मानना ही होगा कि इस ग्रंथ में ज्ञान सम्बन्धी किसी दार्शनिक सिद्धांत का उल्लेख नहीं हुआ है। यह मात्र साधना और आध्यात्मिक विशुद्धि के संदर्भ में ज्ञान के महत्त्व को प्रतिपादित करता है।
प्रस्तुत शोध निबन्ध का तृतीय अध्याय तत्त्व मीमांसा से सम्बन्धित है। ऋषिभाषित की यह विशेषता है कि इसको तत्त्वमीमांसीय चर्चाओं में चार्वाकों के
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