________________
184
डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी
नवम् अध्याय उपसंहार
ऋषिभाषित प्राकृत साहित्य के प्राचीनतम ग्रंथों में से एक हैं! इसकी भाषा आर्य प्राकृत या प्राचीन अर्धमागधी है। इसका रचनाकाल विद्वानों ने ईसवीं पूर्व तीसरी-चौथी शताब्दी माना है, जो हमें उपयुक्त लगता है। जहाँ तक ग्रन्थ के रचयिता का प्रश्न है हमें किसी भी स्रोत से कोई ऐसा निर्देश उपलब्ध नहीं हुआ जिसके आधार पर इस ग्रन्थ के रचयिता का निर्णय किया जा सके। यद्यपि इसकी रचना शैली तथा प्रत्येक अध्याय के उपोद्घात और समापन में समरूपता को देखकर ऐसा लगता है कि यह संग्रह ग्रंथ न होकर के किसी एक ही व्यक्ति की रचना है, जिसने अनुश्रुति से प्राप्त श्रमण और ब्राह्मण धारा के ऋषियों के वचनों का संकलन इसमें किया है। यद्यपि इस संकलन में जैन परम्परा का कुछ प्रभाव आया है- ऐसा लगता है और रचयिता के जैन परम्परा से सम्बद्ध होने के कारण ऐसा होना स्वाभाविक भी है।
इसमें 44 ऋषियों और उत्कटवादियों के जिन विचारों का संकलन किया गया है उससे ऐसा अवश्य लगता है कि ग्रन्थ निर्माता एक उदार और व्यापक दृष्टि से सम्पन्न रहा होगा। यह ग्रंथ वैचारिक उदारता और धार्मिक सहिष्णुता का प्राचीनतम एवं अनन्य ग्रंथ है; क्योंकि इसमें न केवल जैन परम्परा के ऋषियों के उपदेशों का संकलन है अपितु बौद्ध, औपनिषदिक एवं अन्य श्रमण धारा के ऋषियों के उपदेशों का भी संकलन किया गया है। मात्र यही नहीं उन्हें अर्हत् ऋषि, अर्हत् बुद्ध, माहण ब्राह्मण- ऋषि ऐसे उदारतम विशेषणों से सम्बोधित किया गया है।
किसी भी परम्परा में दूसरी परम्परा के व्यक्तियों के विचार सामान्यतया आलोचना की दृष्टि से ही प्रस्तुत किये जाते हैं। किन्तु इस ग्रंथ की विशेषता यह है कि इसमें सभी ऋषियों के विचारों को आदर और सम्मानपूर्वक प्रस्तुत किया गया है
और उनकी आलोचना का कहीं भी कोई निर्देश नहीं है। यहाँ तक कि भौतिकवादी चार्वाक परम्परा के विचारों को भी उसी प्रकार प्रस्तुत किया गया है जिस प्रकार अन्य ऋषियों के उपदेश को। यद्यपि इतना अवश्य है कि भौतिकवाद के प्रस्तोता किसी
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org