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________________ डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी भौतिकवाद, बौद्धों के सन्ततिवाद, क्षणिकवाद और पंचस्कन्धवाद जैनों के नित्यानित्यवाद या परिणामी नित्यतावाद, सांख्यों और औपनिषदिक विचारकों के आत्मकूटस्थतावाद, पंचमहाभूतवाद, पार्श्व के पंचास्तिकायवाद आदि विविध तत्त्वमीमांसीय अवधारणाओं पर संक्षिप्त विवरण भी पाये जाते हैं। इस आधार पर हम यह कह सकते हैं कि ऋषिभाषित में बौद्ध, जैन, औपनिषदिक एवं सांख्य परम्पराओं की प्राचीन तत्त्वमीमांसीय अवधारणाएँ निर्दिष्ट है । यद्यपि प्रस्तुत ग्रंथ में किसी भी तत्त्वमीमांसीय सिद्धांत की दार्शनिक दृष्टि से समालोचना नहीं की गई है, मात्र यही बताया गया है कि इन सिद्धांतों को मानकर व्यक्ति किसी प्रकार अपनी आध्यात्मिक विशुद्धि को प्राप्त कर सकता है। ऋषिभाषित के अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि उस काल में विभिन्न तत्त्वमीमांसीय अवधारणाएँ व्यक्ति को सांसारिकता से विमुख करके आध्यात्मिक विकास की दिशा में अग्रसर होने के लिए एक पूर्व पीठिका के रूप में प्रस्तुत की जाती थी । इस प्रकार प्रस्तुत ग्रंथ तत्त्वमीमांसीय अवधारणाओं को नैतिक और आध्यात्मिक विकास की अधिमान्यता के रूप में ही प्रस्तुत करता है। यहाँ तत्त्वमीमांसा, तत्त्वमीमांसा के लिए न होकर आध्यात्मिक और नैतिक विशुद्धि के लिए ही आधारभूत मानी गई है। 186 शोध प्रबन्ध का चतुर्थ अध्याय कर्म सिद्धांत का विवेचन करता है। यह सुस्पष्ट है कि कर्म सिद्धांत भारतीय नैतिक चिन्तन की आधारभूमि है। सभी भारतीय विचारक चाहे वे किसी भी श्रमण और औपनिषदिक परम्परा से सम्बद्ध रहे हों, कर्म सिद्धांत को मानकर चले हैं। कर्म सिद्धांत की चर्चा ऋषिभाषित के अधिकांश अध्यायों में पाई जाती है। ऋषिभाषित कर्मों के शुभत्व और अशुभत्व की और उनके शुभाशुभ फलों की चर्चा विस्तार से करता है। किन्तु उसका मुख्य उद्देश्य कर्म ग्रन्थी का विमोचन है। अतः ऋषिभाषित में भी इस बात पर बल दिया गया है कि व्यक्ति को शुभाशुभ कर्मों का अतिक्रमण करना चाहिये । शुभ और अशुभ से ऊपर उठकर शुद्ध आध्यात्मिक दशा में अवस्थित होना ही भारतीय साधना पद्धति का मुख्य लक्ष्य रहा है, जिसका निर्देश हमें ऋषिभाषित में भी उपलब्ध होता है। ऋषिभाषित में बौद्धों के सन्ततिवाद का विवेचन भी इसी कर्म सिद्धांत के प्रसंग में ही हुआ है। महाकाश्यप, सारिपुत्त और वज्जियपुत्त नामक अध्यायों में इसे तथ्य को देखा जा सकता है। प्रस्तुत शोध निबन्ध का पाँचवा अध्याय मनोविज्ञान से सम्बन्धित है। ऋषिभाषित के चौथे अध्याय में मानव प्रकृति का सुन्दर विवेचन उपलब्ध होता है। इसके अतिरिक्त अन्य अध्यायों में भी पाँचों इन्द्रियों और उनके विषयों की न केवल चर्चा की गई है, किन्तु संयम साधना के संदर्भ में यह प्रश्न भी उठाया गया है कि इन्द्रियों को उपस्थिति में सेन्द्रियों के विषयों में करता है कि इन्द्रय निरोध का तात्पर्य इन्द्रियों को अपने विषयों के भोग से वंचित करना नहीं, अपितु इन्द्रिय का, अपने www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.002508
Book TitleRishibhashit ka Darshanik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramodkumari Sadhvi
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2009
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
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